Saturday, May 31, 2008

वह हज्जाम भी था और.....

आज सुबह रोज की तरह उठकर अखबार को तलाशा। उसके हाथ में आते ही बैठ गया ढुढने खबरें। हां खबरों से रोज का वास्ता है लेकिन आदतन और मजबूरन खबरें पढनी ही पडती हैं। आदतन इसलिए कि इतने सालों से पढ रहा हूं तो तलब लगती है,मजबूरी इस बात की कि दूसरे अखबार क्या लिख रहे हैं, अपने सेंटर की कोई बडी खबर मिस तो नहीं हुई। खैर यह सब तो रोज का है नया यह कि अखबार जो मेरे हाथ में था उसमें उस खबर पर नजर टिक गई जिसमें उन तमाम मशहूर बावर्ची भाईयों का जिक्र था जो मुंबई में हाथोंहाथ बिकते हैं और जो तमाम फिल्मी और राजनैतिक लोगों की पार्टियों में उनके मेहमानों के लिए लजीज खाना तैयार करते हैं। अब आप कहेंगे कि इसमें ऐसी क्या बात है कि नजर टिक गई या इस पर पूरी पोस्ट लिखी जाए। सही है। मगर इन रसोईयों और पार्टियों ने मुझे वह बात याद दिला दी जिसे मैं आप सब से शेयर करना चाहता हूं। बात यूं है कि हम ठहरे गांव के और वह भी पूरे ठेठ गांव के। जहां मुश्किल से अभी दस साल पहले बिजली का आगमन हुआ। हमारे गांव में कुछ नहीं तो चार पांच सौ घर तो होंगे ही। अब गांव के सभी लोगों के दाढी और बाल बनाने के लिए दो हज्जाम थे। दोनों ने अपने अपने हिसाब से गांव को बांट रखा था। हफते में एक दिन आते थे और पूरे गांव की सफाई कर जाते थे। इनमें से एक सज्जन थे बदरेआलम। उम्र करीब 45 50 के दरम्यान की रही होगी। पूरे मजाकिया और मसखरे। बडों के बाल तो ठीकठाक काट देते थे मगर बच्चों के बात तो अजीब अजीब स्टाइल में काट देते थे। वह सारे स्टाइल इस समय या तो फैशन में हैं या कुछ दिन पहले तक फैशन में थे। मगर उस समय उस गांव के माहौल में मजाक का सबब। बच्चे गाली देते थे और वह हंसकर टाल देते, लेकिन अपनी आदत उन्होंने नहीं छोडी। अब सोचता हूं अगर वह होते या उनके हाथ चलते तो वह किसी महानगर में अच्छी खासी कमाई कर सकते थे। अरे मैं तो मूल मुददे से भटक रहा हूं। बात कर रहे थे बावर्चीगीरी की। तो गांव में जब भी कोई शादी होती या कोई ऐसा कार्यक्रम होता जिसमें गांव भर के लोगों का भोज होता तो यही दोनों हज्जाम खाना बनाते। हां इस काम में पूरा गांव उनका साथ देता। मसाले गांव भर की महिलाएं सिलवटों पर पीसतीं तो सारे मर्द प्याज छीलने से लेकर काटने तक का काम करते। यही नहीं चावल धोने से लेकर गोश्त धोने का काम भी मर्दों के जिम्मे होता। फिर हज्जाम आग जलाकर आग जलाता फिर देग चढाकर खाना बनाता। समय कहां से कहां पहुंच गया मगर सच पूछिए तो वह खाना और वह माहौल आज भी बहुत याद आता है।

Tuesday, May 27, 2008

क्यूं नहीं आती अब रात छत पर।

क्यूं नहीं आती अब रात छत पर।
क्यूं नहीं अब भोर गुनगुनाते हैं।।
क्यूं नहीं अब कूकती है कोयल।
क्यूं नहीं अब खेत लहलहाते हैं।।
क्यूं नहीं अब सांझ शरमाती है।
क्यूं नहीं अब फूल खिलखिलाते हैं।।
क्यूं नहीं अब बारिश हंसती है।
क्यूं नहीं अब भौंरे गुनगुनाते हैं।।

इसलिए रात नहीं आती छत पर
कि हमने छत पर जाना छोड दिया।
इसलिए अब नहीं गुनगुनाता भोर
कि हमने उसे बुलाना छोड दिया।
इसलिए नहीं कूकती कोयल
कि हमने उसे चिढाना छोड दिया।
इसलिए खेत अब नहीं लहलहाते
कि हमने हंसना छोड दिया।
इसलिए नहीं अब सांझ शरमाती
कि हमने उसे आईना दिखाना छोड दिया।
इसलिए अब नहीं खिलखिलाते फूल
कि हमने उन्हें हंसाना छोड दिया।
इसलिए नहीं अब बारिश हंसती
कि हमने अब उसमें नहाना छोड दिया।
इसलिए नहीं अब अब गुनगुनाते भौंरे
कि हमने मुस्कुराना छोड दिया।।

Monday, May 26, 2008

ब्लाग जगत के लिए यह खतरे की घंटी है

कहते है आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है। प्राचीन युग से अब तक हमें समय समय पर तमाम चीजों की जरूरत पडी और हमने अपनी जरूरत को महसूस करते हुए वह तमाम चीजें इजाद भी कीं। यह बात दिगर है कि उन तमाम चीजों में से कितनी ही आगे चलकर हमारे लिए घातक साबित हुईं। पिछले कुछ दिनों से ब्लागजगत पर हो रही हाय हाय और आरोप प्रत्यारोप से भी कुछ ऐसा ही इशारा मिल रहा है। ब्लाग का इजाद हुए अभी बहुत दिन नहीं हुए या यूं कह लें कि अभी ब्लाग जगत का शैशव काल ही चल रहा है। मगर अभी से इसके चिंताजनक वह पहलू सामने आने लगे हैं जो कुछ कुछ हमारे ही द्वारा इजाद किए गए उन चीजों से मेल खाते हैं जो हमारे लिए घातक साबित हुए। व्यक्तिगत रूप से अब मैं यह महसूस करने लगा हूं कि जिस ब्लाग को मैं या अन्य कुछ साथी हिंदी जगत या लेखनी के विकास का एक जरिया मान रहे थे या कुछ साथी अपने संस्मरण या अपने जज्बात सहेज कर रखने वाला एक सजाया गया कमरा समझ रहे थे दरअसल वह ब्लाग कुछ लोगों के लिए सिर्फ और सिर्फ बकवास निकाले, गाली गलौच करने एक दूसरे की बखिया उधेडने और एक दूसरे को नीचा दिखाने का जरिया बनता जा रहा है। यह निश्चित रूप से एक ऐसा बुरा संकेत है जो ब्लाग जगत के अंत या इसके बेहद कुरूप हो जाने का इशारा करता है। कुछ लोग बहुत जल्द बहुत बडा बनने का सपना देखते हैं और ऐसे लोग विवाद को विकास का साधन समझ हर रोज एक नया बखेडा खडा करना चाहते हैं ताकि ब्लाग जगते के लोग उनके पचडे में पडकर उन्हे अहमियत दें और वह दिनोंदिन मशहूर होते जाएं। यह एक ऐसी नापाक कोशिश है जिसे अगर ब्लागर समझ जाएं तो इनके मंसूबों पर पानी फिर सकता है। ऐसे ब्लागरों का बहिष्कार किया जाना चाहिए जो इस तरह की हरकत करें। यह ब्लागजगत के हित में है। यह एक अपील है।

Friday, May 23, 2008

आज सब इक ख्याल आया

आज सब इक ख्याल आया।
जवाब ढूढा मगर सवाल आया।।
क्यूं नहीं पूछ लिया उससे दिल की बात।
रह रह कर यही मलाल आया।।
जिसको नकारा समझती रही दुनिया।
जिंदगी के इम्तिहान में वह कमाल आया।।
अलहदा वो सबसे इसलिए है कि।
जहीन सबसे उसका जमाल आया।।
मुफ्त में खाने की पड गई आदत जिसको।
क्या फर्क पडता है क्या हराम आया क्या हलाल आया।।
आज सब इक ख्याल आया।
जवाब ढूढा मगर सवाल आया।।
अबरार अहमद

Thursday, May 22, 2008

सोचता हूं तो डर लगता है

सोचता हूं तो डर लगता है।
और नहीं सोचता हूं तो डरता हूं।।
कभी खुद के बारे में।
कभी दूसरों के बारे में।
उस सिग्नल पर बेसुध पडा वह आदमी ही था।
स्टेशन पर चिथडों में घूमने वाला भी आदमी ही था।
भूख से बिलखता हुआ वह बच्चा भी आदमी ही था।
उसी सिग्नल पर लंबी गाडी में एसी की हवा खा रहा वह आदमी ही था।
उसी स्टेशन पर लंबे कोट में सिगरेट के धुंए उडा रहा आदमी ही था।
उस होटल में कई लोगों का खाना बर्बाद करने वाला आदमी ही था।
सोचता हूं तो डर लगता है।
और नहीं सोचता हूं तो डरता हूं।।
कभी खुद के बारे में।
कभी दूसरों के बारे में।

Wednesday, May 14, 2008

चोट खाकर भी मुस्कुराते नहीं तो...

चोट खाकर भी मुस्कुराते नहीं तो क्या करते।
दिल के जज्बात दिल में दबाते नहीं तो क्या करते।।

भरी महफिल में जब उन्होंने न पहचाना हमको।
नजर हम अपनी झुकाते नहीं तो क्या करते।।

उनके दुपट्टे में लगी आग न हमसे देखी जाती।
हाथ हम अपना जलाते नहीं तो क्या करते।।

दोस्तों ने जब सरे राह छोड दिया मुझको।
तब हम गैरों को बुलाते नहीं तो क्या करते।।

किस मुददत से वो देख रहा था राह मेरी।
वादा हम अपना निभाते नहीं तो क्या करते।।

चोट खाकर भी मुस्कुराते नहीं तो क्या करते।।
दिल के जज्बात दिल में दबाते नहीं तो क्या करते।

Tuesday, May 13, 2008

15 मिनट, 9 ब्लास्ट और 70 जानें फनां

देश की गुलाबी नगरी जयपुर मंगलवार को खून से लतपथ लाल नगरी में तब्दील हो गई। शाम करीब सवा सात बजे से लेकर साढे सात बजे तक दहशत के जो धमाके हुए उन्होंने इस शहर को हिला कर रख दिया। जानकारी के मुताबिक करीब 180 लोग इन धमाकों में घायल हुए हैं। यह धमाके पुरी तरह से सुनियोजित थे। धमाकों के लिए जयपुर के वह इलाके चुने गए थे जो पूरी तरह से खचाखच भरे रहते हैं। यह इलाके जहा एक ओर पर्यटन के लिहाज से महत्वपूर्ण हैं वहीं मंगलवार होने के नाते इन इलाकों में हनुमान जी की पूजा करने के लिए अधिकांश लोग जमा हुए थे। धमाके उसी तरह किए गए जिस तरह से मुम्बई, हैदराबाद, फैजाबाद आदि शहरों में किए गए यानि इन धमाकों में भी साइकिल का इस्तेमाल किया गया। इन साइकिलों पर विस्फोटक रखे गए थे।
कहीं पर्यटन को निशाना बनाना मकसद तो नही
जम्मू कश्मीर में दहशतगर्दों ने पर्यटन को नुकसान पहुंचा कर वहां के लोंगों को आर्थिक तौर पर कमजोर कर दिया है। इसका असर वहां के लोंगे के रहन सहन और शिक्षा पर पडा है। जाहिर सी बात है जहां जहालत होगी वहां खुराफात तो पनपेगा ही। इसका सीधा असर यह हुआ है कि वहां के नौजवान आतंकवाद की तरफ मुड रहे हैं। दूसरे वहां के हालात खराब दिनों दिन खराब हो रहे हैं और आतंकवाद को बल मिल रहा है। राजस्थान भी पर्यटन की नजर से महत्वपूर्ण राज्य है। ऐसा लगता है कि आतंकवादी अब राजस्थान के पर्यटन को निशाना बनाना चाहते हैं। क्योंकि अगर वहां से भी पर्यटन उठ गया तो राजस्थान के हालात भी करीब करीब जम्मू कश्मीर की तरह हो सकते हैं। एक कारण यह भी है कि राजस्थान की सीमाएं भी पाकिस्तान से सटती हैं।
जागरूक होने की जरूरत
देश में हालात ऐसे है कि हर चौथे पांचवे महिने में कहीं ना कहीं सिलसिलेवार बम बलास्ट हो रहे हैं ऐसे में हम सब के जागरूक होने की जरूरत बढ गई है। अगर जनता जागरूक हो जाए तो ऐसी वारदातों को बहुत हद तक रोका जा सकता है। कहीं भी संदिग्ध बैग या लावारिस सामान के दिखते ही तुरंत पुलिस को सुचित करें। संदिग्ध लोगों पर नजर रखें। एकजुटता दिखाएं और बुराई के खिलाफ जंग को हमेशा तैयार रहें।

Saturday, May 10, 2008

मां मैं अंश हूं तेरा

मां मैं अंश हूं तेरा।
मुझमे समाहित हैं तेरे विचार
संस्कार तेरा प्यार।।
तू जननी है मेरी, मेरे गुणों की।
मां मैं अंश हूं तेरा।।

तूने ही मुझको चलना सीखाया।
ये जीवन है क्या तुम्ही ने बताया।।
मुसीबत से लडना भी तुमने सीखाया।
मैं आवाज हूं मां तेरी धडकनों का।
तू जननी है मेरी, मेरे व्यक्तित्व की।
मां मैं अंश हूं तेरा।।

जहां भी रहूंगा तेरा नाम लूंगा।
तेरे आंसुओं को अपनी पलकों पर थाम लूंगा।
मेरी हर खुशी तेरी चरणों में माते।
मैं कर्जदार हूं तेरी हर एक सांस का।
तू जननी है मेरी, मेरी भावनाओं की।
मां मैं अंश हूं तेरा।
मां मैं अंश हूं तेरा।।

मां यह शब्द सुनते ही हम खुद को सबसे सुरक्षित महसूस करते हैं। यह केवल एक शब्द ही नहीं ममता की वह विशाल छांव है जो हमे हर मुसीबत और विपदा से बचा कर रखती है। यह शब्द सुनते ही हम खुद को एक बच्चा महसूस करते हैं चाहे हमारी उम्र जो भी हो। साथ ही हमारा बचपना भी झलकने लगता है। सभी साथियों से अपील है कि इस कविता को पढने के बाद एक बार मां शब्द का उच्चारण जरूर करें। देखिएगा इससे कितना सुकून मिलेगा। तो कहिए मां।

Monday, May 5, 2008

मां अब मैंने देख ली है दुनिया

अब खुद उठकर पी लेता हूं पानी।
अब जली रोटियां भी खा लेता हूं।
अब नहीं खलता खाने में सब्जी का न होना।
मां अब मैंने देख ली है दुनिया।।

अब कोई नहीं पूछता कहां गए थे।
अब कोई नहीं पूछता क्या कर रहे हो।
अब कोई नहीं पूछता आगे क्या करोगे।
अब्बू अब मैंने देख ली है दुनिया।।

अब मुझसे नहीं लडते मेरे भाई।
अब बहन नहीं करती कोई जिद।
अब दोस्त नहीं ले जाते घूमने के लिए।
अब मैंने देख ली है दुनिया।।
हां अम्मी मैंने देख ली है दुनिया।।
अबरार अहमद

Saturday, May 3, 2008

वो जहर है मगर....

वो जहर है मगर दवा का असर रखता है।
आंखों से अंधा है मगर पारखी नजर रखता है।।

उसके हुनर को कहीं जंग न लग जाए इसलिए।
वह अपने हाथों में एक पोशीदा कसर रखता है।।

उसको नजरबंद करने की बात भी सोच ली कैसे।
वो हवा है हर जगह अपनी रहगुजर रखता है।।

और एक दिन सिमट जाना है सबको दो गज जमीन में।
पड जाए आदत इसलिए वह इतनी ही बसर रखता है।।

वो जहर है मगर दवा का असर रखता है।
आंखों से अंधा है मगर पारखी नजर रखता है।।
अबरार अहमद

Thursday, May 1, 2008

तब जी भर कर रो लेता हूं।

अपनों से दूर होने का दर्द जब सरहदें तोड देता है।
कोई अपना जब अचानक मुहं मोड लेता है।।
रात जब काटे नहीं कटती है।
हर वक्त जब उलझन सी रहती है।।
तब जी भर कर रो लेता हूं।

जब नानी की आवाज कानों में गूंज जाती है।
मां की आंखों में जब पानी की बूंद आती है।।
अब्बू का चेहरा जब याद आता है।
दोस्तों का मजाक जब सताता है।।
तब जी भर कर मैं रो लेता हूं।।
जब किसी के किचन से खुशबू आती है।
जब वो चौराहे और गलियां याद आती हैं।।
तब फिर मैं जी भर कर रो लेता हूं।
अबरार अहमद