Sunday, June 29, 2008

हम आइने की तरह साफ हैं

हम आइने की तरह साफ हैं।
जो हकीकत है वही दिखाते हैं।।

घरों को तोडने वालों जरा उनसे पूछो।
तिनका तिनका जोड के जो घर बनाते हैं।।

जिंदगी के हर मोड पर जिनके साथ खडे रहे।
वक्त पडने पर क्यूं वही हमें आजमाते हैं।।

हम खा चुके हैं धोखा किसी पर भरोसा करके।
जमात न बढे अपनी इसलिए हर वादा निभाते हैं।।

वक्त ने छीन लिए जब सारे राजदार हमसे।
हम भी इंसान हैं दीवारों को अपने किस्से सुनाते हैं।

Saturday, June 28, 2008

मुझे मत मारो,मुझे जीने दो

आज सुबह जैसे ही टीवी चालू किया एक ऐसी खबर सामने आई जिसने सोचने पर मजबूर कर दिया। और मैं तो यह कहूंगा कि इस खबर पर हर मां बाप को सोचना चाहिए कि आखिर हम अपने बच्चे को क्या दे रहे हैं अपनी अगली पीढी को कहां ले जा रहे है। हम क्यूं उनसे उनका बचपन छीनकर उन्हें समय से पहले बडा बना रहे हैं और इसके लिए यह हक हमें किसने दिया। हां आपको वह खबर तो बता दूं। खबर थी कि कोलकाता के एक रियालिटी शो के दौरान जजों ने एक बच्ची को कुछ इस तरह बेइज्जत किया कि वह कोमा में चली गई। शिंजनी नाम की यह लडकी अब न बोल पा रही है न सुन पा रही है। अब सवाल यह उठ रहा है कि क्या हम अपनी संतानों को उस मुहाने पर लाकर नहीं खडा कर रहे या उस दिशा में नहीं भेज रहे जहां वह अपना मानसिक और शारीरिक संतुलन खो सकते हैं। क्या हम उनके उपर समय से पहले वह बोझ नहीं डाल रहे जो एक तय सीमा के बाद पडना चाहिए। क्या बच्चों को प्रतिस्पर्धा की बेदी पर चढाना सही है। एक वक्त था जब मां बाप अपने बच्चों को पांच साल की उम्र तक स्कूल नहीं भेजते थे। पांच साल की उम्र तक बच्चा अपने बचपने को जीता था दोस्तों के साथ खेलता था और मस्ती करता था और जब पांच साल की उम्र में उसका स्कूल में दाखिला होता था तो नर्सरी क्लास उस बच्चे को मिलती थी। नर्सरी के बाद वह पहली जमात में पहुंचता था। मगर अब हालात बदल चुके हैं अब तो दो साल के बच्चे स्कूल जाने लगे हैं। स्कूलों ने भी यूकेजी एलकेजी तो इस तरह की तमाम क्लासें इजाद कर दी हैं जो इन बच्चों के बचपन को निपटा रही है। हां इस व्यवस्था में मां बाप की गैर जिम्मेदारी पूरी तरह से झलकती है। मां बाप भी बच्चों को पालने से डरते हैं या उनके पास इतना समय नहीं बचा कि वह अपने बच्चे के बचपने को सहेज सकें। यह तो सब जानते हैं कि सबकी आईक्यू एक बराबर नहीं होती और हो भी नहीं सकती क्योंकि उपर वाले ने कुछ भी एक जैसा नहीं बनाया और न बनाएगा। फिर हम क्यों अपने बच्चों को एक जैसा बनाने पर तूले हैं। हम क्यूं चाहते हैं कि हमारा बच्चा आलराउंडर निकले। वह गवइया भी बने, नाचे भी और तबला भी बजाए। साथ ही पढे भी। हम क्यों उसे एक ऐसे मंच पर ढकेल देते हैं जहां उसे उस उम्र में वह मानसिक और शारीरिक तनाव झेलना पडता है जो उसके मौजूदा मानिसक और शारीरिक हिसाब से बहुत बडी है। मैं उन सभी मां बाप से अपील करता हूं कि इस मामले पर एक बार गौर से सोचे और अपने बच्चे की आंखों में झांक कर देखें कि क्या उसका बचपन छीनने का हक आपको है।

Tuesday, June 24, 2008

टीवी युग में अखबार

त्वरित संचार के इस काल में जब हर शहर की छोटी बडी खबरें हमारे टीवी स्क्रीन पर उपलब्ध हो जा रही हैं तो अखबार क्यों। यह वह सवाल है जो नई पीढी का कोई भी बंदा बेझिझक पूछ सकता है। सवाल वाकई में सोचने पर मजबूर करता है कि अखबार क्यों। आज जब हमारे पास इतना वक्त नहीं कि हम चैन से सो सकें या अपने बच्चों का होमवर्क करा सकें तब 18 या 22 पेज का कोई अखबार पढना एक आदमी के लिए कितना मुनासिब हो सकता है। यह प्रेक्टिकल बात है इस पर गौर करने की जरूरत है। मौजूदा समय में अखबार को जो सबसे ज्यादा चुनौती मिल रही है वह इंटरनेट से है। इंटरनेट पर आज हर खबर मौजूद है। बावजूद इसके अखबार का वजूद अब भी देश में बहुत मजबूत है और आने वाले समय में इस वजूद में इजाफे की पूरी संभावनाएं दिख रही हैं। यह भी सोचने वाली बात है। अखबार का प्रसार और पाठक संख्या जैसा कि अखबारों के सर्वे बताते हैं बढती ही जा रही है। इसके कई कारण हैं। इन सभी कारणों पर बाकायदा बहस कराई जा सकती है। अखबारों के बढने के पीछे एक मजबूत कारण जो मुझे दिखाई देता है वह यह है कि अखबार आज हमारे लिए स्टेटस सिंबल की तरह काम कर रहे हैं या फिर अखबार लेना एक तरह की मजबूरी हो गई है कि अखबार तो घर में आना ही चाहिए चाहे उसे कोई पढे या न पढे। हां एक बार नजर दौडा ली जाए तो बेहतर है। दूसरा कारण जो अभी दिखाई दे रहा है वह लाभ कि स्थिती से है। अखबारी दुनिया में आए बूम ने देश में जो प्रतिस्पर्धा पैदा कर दी है उसका नतीजा यह निकला है कि अब देश के अधिकांश अखबार स्कीम की बदौलत बिक रहे हैं। साथ ही सालाना बुकिंग के साथ। इसमें अखबार की रददी और गिफ्ट का बडा रोल है। यह दो मुख्य वजहें अभी फिलहाल तो अखबारों के प्रचार प्रसार और पाठक संख्या को बढा रही हैं। केबल और इंटरनेट के इस युग में अखबार जिंदा है वह भी पूरे शान के साथ। कारण चाहे कुछ भी हो और अखबार आने वाले समय में भी इसी तरह जिंदा रहेगा अब यह देखना है कैसे। चलिए सुबह अखबार भी पढना है।

Sunday, June 22, 2008

चलो ना कहीं दूर चलें

चलो ना कहीं दूर चलें,इस भीडभाड से।
जहां भोर अजान और हनुमान चालीसा से हो।
जहां सुबह को मुर्गा बांक दे।
दोपहर उस बागीचे की छांव में गुजरे।
शाम हरे भरे खेतों की मेढों को नापे।
और रात इतनी लंबी हो कि हर थकान मिट जाए।।
चलो ना कहीं दूर चलें,इस भीडभाड से।
जहां कल को संवारने में आज न खराब हो।
जहां सुख दुख के साथी तमाम हों।
जहां दादी नानी का प्यार हो।
जहां रिश्तों की दरकार हो।
चलो ना कहीं दूर चलें,इस भीडभाड से।
चलो ना कहीं दूर चलें,इस भीडभाड से।।

Saturday, June 21, 2008

हर लम्हा मारकर भी जिलाती रही मुझे

कुछ इस तरह से जिंदगी सताती रही मुझे।
हर लम्हा मारकर भी जिलाती रही मुझे।।

गफलत में न पड जाउं कभी किसी गुमान में।
हर रोज एक बार वो आइना दिखाती रही मुझे।।

इस डर से कि कभी दूर न हो जाउं उससे मैं।
रह रह के बार बार वो बुलाती रही मुझे।।

संजीदगी मेरे चेहरे पे नागवार थी उसको।
चेहरा बदल बदल कर वो हंसाती रही मुझे।।

हर रंग दुनियादारी का देख रखा था उसने।
इसलिए अपने आंचल में वो छुपाती रही मुझे।।

कुछ इस तरह से जिंदगी सताती रही मुझे।
हर लम्हा मारकर भी जिलाती रही मुझे।।

Tuesday, June 17, 2008

तेरे शहर में तुझे ढूढते जमाने गुजर गए

मिलते थे जिनसे रोज वो जाने किधर गए।
तेरे शहर में तुझे ढूढते जमाने गुजर गए।।

टुकडों टुकडों की नींद से बटोरे थे कुछ सपने।
ऐसी हवा चली कि वो सारे बिखर गए।।

वक्त ने क्या सितम किया कैसे बताएं हम।
वो हर शहर उजड गया हम जिधर गए।।

न जाने क्या कशिश थी उसकी निगाह में।
जिन पर पडी नजर वो कातिल सुधर गए।।

मिलते थे जिनसे रोज वो जाने किधर गए।
तेरे शहर में तुझे ढूढते जमाने गुजर गए।।

Monday, June 16, 2008

हां अब बदल गया इंसान

बच्चे नहीं खेलते अब गलियों में।
भौंरे नहीं आते अब कलियों में।
क्यों अब माएं नहीं सुनाती लोरी।
क्यों सपने सारे हो गए चोरी।।
हमने खो दी अपनी पहचान।
हां अब बदल गया इंसान।
हां अब बदल गया इंसान।।

कहां गए खेत खलिहान।
कहां गई अपनी दालान।
क्यों अब हम एक साथ नहीं खाते।
चंदा मामा अब क्यों नहीं आते।।
क्योंकि हमने खो दी अपनी पहचान।
हां अब बदल गया इंसान।
हां अब बदल गया इंसान।।

दूसरे का सुख अब नहीं देखा जाता।
सच बोलना अब हमें नहीं आता।
छोड दिया अब हाथ से खाना।
पांव छूने का गया जमाना।
अंगरेजी बनी हमारी शान।
क्योंकि हमने खो दी अपनी पहचान।
हां अब बदल गया इंसान।
हां अब बदल गया इंसान।।

Saturday, June 14, 2008

जिंदा रहने के लिए सौ बार भी मर जाउंगा

सांस दर सांस तेरे जिश्म में उतर जाउंगा।

जिंदा रहने के लिए सौ बार भी मर जाउंगा।।

इक मुददत के बाद अब जाकर खुद को जोडा है।

अबकी रूठोगे तो हर सिम्त बिखर जाउंगा।।

जानता हूं कि शक्ल ओ सूरत से बडा कमतर हूं।

पर एक ना एक दिन उन आंखों में संवर जाउंगा।।

मैं तो मुसाफिर हूं जरा देर के लिए ठहरा हूं।

हकीकत यही है कि यहां से भी गुजर जाउंगा।।

इस उम्र में कर लेने दो नादानियां जी भर के मुझे।

वक्त जब आएगा तो मैं भी सुधर जाउंगा।।

सांस दर सांस तेरे जिश्म में उतर जाउंगा।

जिंदा रहने के लिए सौ बार भी मर जाउंगा।।

Monday, June 9, 2008

उस जनवरी की वह सर्द भोर

आज भी याद है मुझको।

उस जनवरी की वह सर्द भोर।

जब नींद आंखों से गायब थी।

क्योंकि उनमें तू जो समाई थी।।

आज भी याद है मुझको।

उस जनवरी की वह सर्द भोर।।

यकीन नहीं होता अब।

कि तब किस्मत भी थी मेहरबान।

निकलता था जब भी कहीं।

तो तू मिल ही जाती थी।

और ऐसा लगता था।

मानो सफल हो गया जागना मेरा।

आज भी याद है मुझको।

उस जनवरी की वह सर्द भोर।।

अब तो एक अरसा गुजर गया।

अब तो देर तक सोता हूं।

अब जनवरी में ठंड भी बहुत लगती है।

लेकिन आज भी याद है मुझको।

उस जनवरी की वह सर्द भोर।।

Sunday, June 8, 2008

बिछ गई है बिसात शतरंज की

बिछ गई है बिसात शतरंज की अब।
एक को जीतना तो एक को हारना होगा।।

जिंदा रहने की इस लडाई में।
जाने किस किस को मारना होगा।।

झूठ इक उम्र जी चुका अपनी।
सच से अब उसका भी सामना होगा।।

ताउम्र टिक नहीं सकता कोई उस ऊंचाई पर।
इस हकीकत को तुम्हें भी मानना होगा।।

माथे की लकीरें पढने वाले अब कहां हैं दुनिया में।
सब झूठ का पुलिंदा है इस बात को जानना होगा।।

जब टूट जाए आस इस दुनिया से।
तब उस खुदा का हाथ ही थामना होगा।।

Saturday, June 7, 2008

अब तो आदत सी हो गई है मुस्कुराने की

बात पते की है इसलिए बतानी थी।
अब तो आदत सी हो गई है मुस्कुराने की।।

उन्होंने कह रखा है कि मुंह नहीं खोलना।
इसलिए अपनी आदत है गुनगुनाने की।।

रूठने वालों का दर्द हमको मालूम है।
इसलिए कोशिश करते हैं सबको मनाने की।।

अपने दरवाजे पर खडा रहता हूं जोकर बन कर।
जरा सी चाहत है मुसाफिरों को हंसाने की।।

हमसफर दोस्तों इस बात का ख्याल रखना।
तुम्हारे एक साथी की आदत है डगमगाने की।।

किसी से वादा बडा सोच समझ कर करते हैं।
क्या करें दिमाग में एक कीडा है जो सलाह देता है इसे निभाने की।।

बात पते की है इसलिए बतानी थी।
अब तो आदत सी हो गई है मुस्कुराने की।।

Thursday, June 5, 2008

जी भर देख लो तो

जी भर देख लो तो आंखों में उतर जाता है।
ये वो शहर है जो हर रोज उजड जाता है।।

हर रोज बिकती हैं यहां कई जिंदा लाशें।
पर अफसोस हर कोई तमाशबीन बन देखता रह जाता है।।

अपना खून गिरा तो खून दूसरे का गिरा तो पानी।
या खुदा क्या ऐसे ही इंसां का जमीर मर जाता है।।

ख्वाब न देख ऐसे जो आंखों में न समाएं।
हकीकत का आइना हर रंग उडा देता है।।

उस चांद को देखा है कभी पूरी अकीदत से।
किसी रोज वह भी एक चलनी में उतर जाता है।।

Sunday, June 1, 2008

ब्रेकिंग न्यूज ब्रेकिंग न्यूज

राजस्थान बना आईपीएल का शहंशाह
एक जबरदश्त मैच में चेन्नई के चीतों को मात देकर राजस्थान रायल्स ने आईपीएल का ताज अपने सर सजा लिया। मैच वाकई बहुत रोचक रहा। लास्ट दो ओवरों का मजा तो जबरदस्त था। इसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। खैर एक तमाशा खत्म अगले कर करिए इंतजार।