Tuesday, February 26, 2008

ये वो शहर है जो

जी भर देख लो तो आंखों में उतर जाता है।
ये वो शहर है जो हर रोज उजड जाता है.

हर रोज बिकती हैं यहां कई जिंदा लाशें।
पर अफसोस हर कोई तमाशबीन बन देखता रह जाता है.

अपना खून गिरा तो खून दूसरे का गिरा तो पानी।
या खुदा क्या ऐसे ही इंसां का जमीर मर जाता है.

ख्वाब न देख ऐसे जो आंखों में न समाएं।
हकीकत का आइना हर रंग उडा देता है.

उस चांद को देखा है कभी पूरी अकीदत से।
किसी रोज वह भी एक चलनी में उतर जाता है.

Sunday, February 24, 2008

कोशिश

मैं एक कोशिश कर रहा हूँ सरहदें पाटने की।
मैं एक कोशिश कर रहा हूँ दूरियां मिटाने की।
मैं एक कोशिश कर रहा हूँ सबको अपना बनाने की।
मैं एक कोशिश कर रहा हूँ एक खुला आस्मान बनाने की।
मुझे मत रोको, मेरे जज्बातों, मेरे ख्यालों, मेरे ख्वाबों को उड़ने दो।
मैं एक कोशिश कर रहा हूँ एक नयी दुनिया बनाने की।
मैं कोई ग़ैर नही तुम्हारा अपना ही हूँ।
बस वक्त ने हमारे बीच यह फासला बो दिया है।
मैं एक कोशिश कर रहा हूँ उस फासले को काटने की।
मैं एक कोशिश कर रहा हूँ ..........बस एक कोशिश

है कोई तुझसे बड़ा

है कोई तुझसे बड़ा, तेरे अस्तित्त्व से, तेरे आधार से।
फिर क्यों डरता है, क्यों तिल-तिल कर मरता है।
तू आकाश है पहचान खुद को।
तेरा कोई अंत नही, तू अनंत है, है कोई जो तुझे सीमाओं में बांध सके।
फिर क्यों डरता है, क्यों तिल-तिल कर मरता है।
तू धरा है, पहचान खुद को।
तेरी सहनशीलता, तेरी सुन्दरता का कोई जोड़ नही।
फिर क्यों डरता है, क्यों तिल-तिल कर मरता है।
है कोई तुझसे बड़ा, तेरे अस्तित्त्व से, तेरे आधार से।
तू अग्नि है, अपनी पहचान कर।
तेरा तेज, तेरा ताप, तेरी ऊर्जा जीवन का स्रोत है।
फिर क्यों डरता है, क्यों तिल-तिल कर मरता है।
तू जल है, खुद को पहचान।
तेरी शीतलता, तेरी निर्मलता, तेरी पवित्रता किसी और में है क्या।
फिर क्यों डरता है, क्यों तिल-तिल कर मरता है।
तू वायु है, अपनी पहचान कर।
तेरा वेग, तेरी शक्ति, तेरा जीवन देने का अंदाज किसी और में है क्या।
फिर क्यों डरता है, क्यों तिल-तिल कर मरता है।
है कोई तुझसे बड़ा, तेरे अस्तित्त्व से, तेरे आधार से।
अबरार अहमद, दैनिक भास्कर, लुधियाना

सोचा न था

वक्त इस मोड़ तक ले आएगा सोचा न था।
एक दिन अपनों से ही सामना हो जाएगा सोचा न था।
जिंदगी बड़ा बेतरतीब जिया करते थे।
इसे संभल-संभल के भी जीना पड़ जायेगा सोचा न था।
जिससे मिलते थे उसे अपना मान लेते थे।
कोई इस तरह पीठ में छुरा भोंक जायेगा सोचा न था।
वक्त इस मोड़ तक ले आएगा सोचा न था।
एक दिन अपनों से ही सामना हो जाएगा सोचा न था।
बड़ा नाज था मुझे उसकी वफ़ा पर।
वो इस तरह बीच रस्ते छोड जायेगा सोचा न था।
कहते हैं की वक्त हर जख्म भर ही देता है।
लेकिन वक्त येसा जख्म भी दे जायेगा सोचा न था।
वक्त इस मोड़ तक ले आएगा सोचा न था।
एक दिन अपनों से ही सामना हो जाएगा सोचा न था।
अबरार अहमद, दैनिक भास्कर, लुधियाना

हर फासला तेरा

हर फासला तेरा हमे दूर होने का एहसास करता रहा।
पर हम भी कम नही थे एक मुसाफिर कि तरह चलते रहे।

किस बात से खफा थे वो हमसे इस बात को तो छोडिये।
कभी एहसास तक न होने दिया, हमेशा खुश होकर मिलते रहे।

कितने सपने संजो लिए हमने देखते-देखते।
वो महज रेत का घरौंदा था, जिसे हम आशियाना समझते रहे।

किसको सुनाये अपनी नासमझी का किस्सा अबरार।
मंजिल साथ खड़ी थी और हम रास्ता तलाशते रहे।

अबरार अहमद, दैनिक भास्कर, लुधियाना

गांड मार लो पत्रकारिता की

शीर्षक से कई लोगों को आपत्ति हो सकती है। पर कुछ लोगों ने वाकई हद कर दी है। देश का चौथा स्तम्भ कहलाने वाले इस पेशे को मटियामेट कर इसे खम्भा बनाने की पुरी कोशिश की जा रही है। हो सकता है की जो देश के तथाकथित बड़े पत्रकार हैं वह एक नई पत्रकारिता गढ़ रहे हों। पर यह वाकई इस पेशे से दुष्कर्म जैसा है। यहाँ मैं प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक दोनों पत्रकारिता की बात कर रहा हूँ। इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने तो ब्रेकिंग न्यूज़ को अपने घर का दामाद ही बना लिया है। अब आज की ही बात ले लीजिये। राखी सावंत ने अपने प्रेमी को थप्पड़ मारा तो यह देश के सबसे तेज न्यूज़ चैनल की ब्रेकिंग न्यूज़ बन गई। इस चैनल ने इस पूरे ड्रामे पर एक विशेष कार्यकर्म तक दिखा डाला। जबकि यह सबको मालूम है की यह पुरा ड्रामा केवल और केवल पब्लिसिटी स्टंट था। जिस प्रकार वो सारा ड्रामा दिखाया गया निश्चत रूप से राखी ने उसके लिए कई दिन तक प्रेक्टिस की होगी अब ये उन महान लोगो को कौन बताये। ये हाईटेक पत्रकार तो बस मॉल बेचने मी जुटे हैं। यही करना है तो मेरी राय है की न्यूज़ चैनल बंद कर कोई ड्रामा चैनल खोल लें। लेकिन इस पेशे को स्वरूप को बिगाड़े नहीं। कुछ लोगों का तर्क हो सकता है की आख़िर २४ घंटे तक न्यूज़ ही तो नही दिखाया जा सकता ना। हाँ ये सच है लेकिन इसका विकल्प वो चीजें हैं जीना ख़बर से कोई रिश्ता ही नही। क्या सांप, भूत, ड्रामा दिखाना पत्रकारिता है।
अब बात करते हैं प्रिंट मीडिया की। लोकलीकरण के नाम पर अख़बारों में जो गंदगी भरी जा रही है वह वाकई में शर्मनाक है। रास्ट्रीय स्तर के अख़बार जब येसा उदाहरण पेश करेंगे तो यह पत्रकारिता के गांड मारने जैसी ही बात है। अख़बार का पहला पन्ना उस अख़बार की सबसे सजी और काबिल लोगों के हाथों बनाईं जाती है।जब पहले पन्ने पर ही नाली, कुदे और समस्याओं का अम्बार रहेगा और वह भी लोकल तो आप काहे के रास्ट्रीय अख़बार। और आप किसे बेवकूफ बना रहे हैं। अपने आप को। मेरे कहने का मतलब बस इतना है की सब कुछ कीजिये मगर पत्रकारिता को पत्रकारिता रहने दीजिये। माना की वक्त बदल रहा है चीजें बदल रही हैं लेकिन ख़ुद को बदलिए ना की पेशे के स्वरूप को।
पत्रकार सथिओं एक मुहीम चलाओ और पत्रकारिता को उसका खोया स्वरूप वापस दिलाओ।
अबरार अहमद

Posted by abrar ahmad



7 comments:
नीरज गोस्वामी said...
सच्ची और खरी बात लिखने के लिए बधाई...
नीरज

14/2/08 9:11 PM
डा०रूपेश श्रीवास्तव said...
अबरार भाई, बिल्कुल सही शीर्षक है जिन्हे आपत्ति होगी वे बस चौथे स्तंभ को सुस्सू करके गीला करने वाले ही होंगे ,इसे मज़बूत करना उनके बस की बात नहीं है ।

14/2/08 9:39 PM
Tiger said...
बिल्कुल सही बात है। अब आप इस फोटो मे ही देखिये क्या क्या ब्रेकिंग न्यूज़ आती है।

http://img98.imageshack.us/img98/5986/image001fb1.jpg

15/2/08 12:27 AM
आशीष said...
जनाब शुरुआत कौन और कहां से करेगा, दिक्‍कत यही है

15/2/08 11:15 AM
संजय तिवारी said...
मीडिया सेंटर में आपसबका स्वागत है.
बस एक ईमेल करिए-visfot@visfot.com

15/2/08 11:46 AM
PRAJAPATI said...
lage raho bhaiji

15/2/08 4:36 PM
दिनेशराय द्विवेदी said...
और किसी को हो न हो आप को खुद अपने शीर्षक पर आपत्ति थी। आलेख के पहली ही पंक्ति में आप ने खुद इसे स्वीकार किया है। आप की बात बहुत वजनी है। लेकिन इसे कहने के लिये भदेस होना क्या जरुरी था। हम चाहते हैं पत्रकारिता अपना दायित्व निभाए, उसका स्तर सुधरे। भाषा भी उसका एक भाग है। आप खूब लिखें, हिन्दी में विरोध के शब्दों की कमी नहीं। मगर भाषा का भी ख्याल करें। मेरी बात बुरी लगे तो टिप्पणी को मोडरेशन में हटा दें।

यूनान, मिस्र, रुमा सब मिट गए......

यूनान, मिस्र, रुमा सब मिट गए जहाँ से।
बाक़ी मगर है अब तक नामों निशाँ हमारा।
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तान........

तब मैं काफी छोटा था जब दादा कि जुबान से डॉक्टर इकबाल कि यह नज्म सुना करता था। मेरे दादा कोई स्वतंत्रता सेनानी नही थे मगर उनको इस बात का गर्व था कि वह सारी हस्तियाँ मिट गईं जिनको खुद पर नाज था मगर हम फिर भी नही टूटे जबकि हमसे पाकिस्तान और बंगलादेश जैसे राष्ट्र निकल गए। आज वह होते तो निश्चित तौर पर परेशान हो जाते। आज देश के हालत बदल रहे हैं। शायद हम अपनी आने वाली पीढियों को डॉक्टर इकबाल कि उक्त दो लाइनों का मतलब न समझा पाएं। खुदा येसा दिन न दिखाए। जो चिंगारी कल तक देश कि आर्थिक राजधानी मुम्बई मी थी वह आग कि शक्ल में देल्ही पहुंच चुकी है। ओछी राजनीती कि यह चाल अब कम मानसिकता वाले संवैधानिक गलियारे तक आ गई है। अगर इस पर जल्द ही लगाम न लगाया गया तो यह भयानक रूप ले सकती है। और संभव है कि ab यह कोलकाता, अहमदाबाद, सूरत और उसके बाद लुधियाना तक पहुंच जाये।
यह मुद्दा कोई नया नही खास तुर पर मुम्बई और असाम के लिए। असम में भी बिहार के लोगों पर हमले हो चुके हैं। और हम इससे निपटते आये हैं। लेकिन कहीं न कहीं हम वो जमीन तैयार कर रहे हैं जो हमे अलग थलग कर सकता है। हमारा भी हसर रशिया कि तरह हो सकता है। हमारे सियासतदान भले ही इस बात को हलके में ले रहे हों मगर पाकिस्तान और चीन के हाथ हम एक नई सोच दे रहे हैं।
राज thakre जैसे नेता कि बात केवल मुम्बई के कुछ लोगों तक ही थी मगर देल्ही के up rajypal tejindar pal का यह कहना कि uttar bhart के लोग niyamon का palan नही करते एक नई बहस shuru कर सकता है और यह bahs jarurii bhii है आख़िर यह तय हो जाना चाहिए कि हम bhartiy हैं या बिहारी या marathi.
Abrar ahmad

Posted by abrar ahmad



1 comments:
डा०रूपेश श्रीवास्तव said...
भाईजान ये तय कौन करेगा कि हम औन हैं भारतीय या फिर मौके दर मौके अपनी पहचान नेताओं के कहने से बदल देने वाले लोग जो कभी बिहारी या मराठी बन जाते हैं और कभी हिन्दू और मुसलमान.......
हमें अब तो जागना होगा मेरे भाई कि राजनेता हमें इन्हीं कुचक्रों में उलझाए रख कर देश को डकारे जा रहे हैं ।

नई जेनरेशन का अखबार- part 1

नई जेनरेशन का अखबार- part 1
सर्व पत्रकार साथियों को सूचित किया जाता है कि इस लेख का किसी जीवित या मृत अखबार से कोई लेना देना नही है, अगर वर्तमान या भविष्य में किसी अखबार से इसके कुछ तथ्य मिलते हैं तो यह मात्र संयोग ही होगा।
अबरार अहमद
सीन एक
सेल्स मैन एक घर का दरवाजा खड्काता है। कोई दरवाजा खोलता है और जैसे ही सेल्स मैन कि टाई दिखती है एक तेज आवाज आती है। नही चाहिए कुछ भी। चले आते हैं सुबह-सुबह मुह उठाये। सेल्स मैन चेहरे पर दुखती हँसी लाते हुए विनती करता है।
मैडम हमारा अखबार अखबारी दुनिया का अबतक का सबसे बड़ा आफर लेकर आया है। येसा आफर किसी अख़बार के पास नही। महिला असंतुस्ट भाव से कहती है अब दरवाजा खोल दिया है तो बक डालो। सेल्स मैन खुश होकर बताता है।
मैडम हमारे अखबार कि एक साल कि बुकिग कराइये और हर महीने सारंगी होटल में आपका और आपके पूरे परिवार का खाना मुफ्त और साल maen दो बार डिस्को जाने का कूपन।
महिला चलो ठीक है पर बुकिंग कितने कि है. कुछ nahi madam bas das jodi purane kapde ya panch jodi purane magar chalne ki halat me hone vale jute aapko dene honge।
mahila boli abhi kal hi ek akhbar vala aaya tha vah to 8 jodi kapdo me hi ek ssal ki buking kar rahaa tha. 8 me dena hai to buk kar do varna rahne do. selsman chalo madam 9 kapde de do. hamara akhbar hafte me 7to din rngin magjin deta hai sath mae dhero eenam neekalta hai. mahila kahti hai nahi mai to 8 hi dungi. ab to kabadi vala bhi akhbaar nahi leta kahta hai maine khud das akhbar bandh rakha hai. usi se itna kabad ho jata hai ki apni roji riti chal jati hai.
selsman chalo madam ab aapne kasam hi kha li hai to de do 8 jodi me hi buk kar dete hain. par yah baat kisi aur se mat bataayiyega.
मेरा मकसद मजाक उडाना नही जागरूक करना है। आप सब को यह बताना है कि हम पत्रकारिता को कहाँ ले जा रहे हैं। इसे कैसे बच्या जा सकता है। फाँट कि दिकत कि वजह से कुछ अंस अंग्रेजी में लिख गए है। माफ़ कीजियेगा।

एक अदद खूंटा चाहिए

जब हम दिमाग रूपी इतनी बडी भैंस लेकर घूम रहे हैं तो उसे बांधने के लिए एक अदद खूंटे की जरूरत तो पडेगी ही.
हम भारत वासी टांग अडाने में तो माहिर ही हैं और हम बराबर फटा हुआ ढुढते रहते हैं ताकि उसमें अपनी टांग फंसाकर मजा लेते रहें.विवाद से तो हमारा गहरा लगाव है.इसके बिना तो हम रह ही नहीं सकते. जरूरत है तो बस चिंगारी उडाने की बाकी आग कैसे लगानी है उसकी चिंता आप छोड दीजिए. अब जनता को कौन समझाए कि अब अकबर कया कब्र से यह बताने आएंगे कि उनकी बीवी का नाम जोधा था या हीरा कुमारी. अभी जितने लोग जोधा के पीछे पडे हैं उनमें से 99 फीसदी लोगों को अपने परदादा, परदादी के नाम तक याद नहीं होंगे. मैं कहता हूं अकबर की बीवी का नाम जोधा था या जो भी था आपकी सेहत कहां से घट गई. लेकिन नहीं हम जबतक अकबर की बीवी का नाम नहीं पता लगाएंगे हमारी रोटी हजम कैसे होगी. और सबसे बडी बात कि मजा कैसे आएगा.
जोधा अकबर के मामले से पहले राज ठाकरे के मामले का विवाद हमारे सामने था. उससे पहले परमाणु करार को हम घसीट रहे थे. उससे पहले मंगल पांडे, भगत सिंह और न जाने कितने विवादों में हम अपनी टांग अडा चुके हैं. और तो और कुछ पारटियों ने तो बाकायदा इसके लिए अपनी छोटी शाखाएं बना रखी हैं. जो इन मुददों को हाइप देते हैं और इनके पास भी पुतलों के थोक भंडार होता है. बस उनपर नए विवाद का नाम चिपकाना होता है. चार लोग चौराहे पर जमा हुए और दे दिया विवाद को तूल. दूर कहां जाते हैं अभी कुछ दिन पहले ही भंडास पर एक मोहतरमा ने फटा टांग दिया तो लगे सभी भडासी उसमें अपनी टांग अडाने और खामखाह मामले को तूल देने. खैर हम तो ठहरे आदमी और वह भी देशी हिंदुसतानी और हम अपनी फितरत रहे छोडने से. अब जोधा अकबर का मामला भी पुराना पडता जा रहा है लिहाजा देश का एक नए विवाद की तलाश है. अब देखिए यह विवाद आपको और हमको कब मिलता है.
अबरार अहमद