Sunday, February 24, 2008

हर फासला तेरा

हर फासला तेरा हमे दूर होने का एहसास करता रहा।
पर हम भी कम नही थे एक मुसाफिर कि तरह चलते रहे।

किस बात से खफा थे वो हमसे इस बात को तो छोडिये।
कभी एहसास तक न होने दिया, हमेशा खुश होकर मिलते रहे।

कितने सपने संजो लिए हमने देखते-देखते।
वो महज रेत का घरौंदा था, जिसे हम आशियाना समझते रहे।

किसको सुनाये अपनी नासमझी का किस्सा अबरार।
मंजिल साथ खड़ी थी और हम रास्ता तलाशते रहे।

अबरार अहमद, दैनिक भास्कर, लुधियाना

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