Thursday, May 1, 2008

तब जी भर कर रो लेता हूं।

अपनों से दूर होने का दर्द जब सरहदें तोड देता है।
कोई अपना जब अचानक मुहं मोड लेता है।।
रात जब काटे नहीं कटती है।
हर वक्त जब उलझन सी रहती है।।
तब जी भर कर रो लेता हूं।

जब नानी की आवाज कानों में गूंज जाती है।
मां की आंखों में जब पानी की बूंद आती है।।
अब्बू का चेहरा जब याद आता है।
दोस्तों का मजाक जब सताता है।।
तब जी भर कर मैं रो लेता हूं।।
जब किसी के किचन से खुशबू आती है।
जब वो चौराहे और गलियां याद आती हैं।।
तब फिर मैं जी भर कर रो लेता हूं।
अबरार अहमद

3 comments:

mehek said...

जब नानी की आवाज कानों में गूंज जाती है।
मां की आंखों में जब पानी की बूंद आती है।।
अब्बू का चेहरा जब याद आता है।
दोस्तों का मजाक जब सताता है।।
bahut marmik rachana khubsurat,wo bhajiye koi nahi bhul sakta,har shar ka apna alag bajiya corner hota hai:):).rona bhi kabhi kabhi sehat ke liye faidemand hota hai.

राज भाटिय़ा said...

जब जी भर के रो लो तो मन हलका हो जाता हे, फ़िर खुशी की गजल लिखो ओर हमेशा हस्ते रहॊ, खुश रहॊ.

Faceless Maverick said...

इस अनुभव को पढ़ कर क्या लिखूं, शब्द नही मिल रहे.
हिन्दी लिखना सीख जो रहा हूँ.
क्या कोई ऐसी तकनीक विकसित हुई है जो आंखों की नमी को भी रचनाकार तक पहुँचा सके?