Tuesday, May 27, 2008

क्यूं नहीं आती अब रात छत पर।

क्यूं नहीं आती अब रात छत पर।
क्यूं नहीं अब भोर गुनगुनाते हैं।।
क्यूं नहीं अब कूकती है कोयल।
क्यूं नहीं अब खेत लहलहाते हैं।।
क्यूं नहीं अब सांझ शरमाती है।
क्यूं नहीं अब फूल खिलखिलाते हैं।।
क्यूं नहीं अब बारिश हंसती है।
क्यूं नहीं अब भौंरे गुनगुनाते हैं।।

इसलिए रात नहीं आती छत पर
कि हमने छत पर जाना छोड दिया।
इसलिए अब नहीं गुनगुनाता भोर
कि हमने उसे बुलाना छोड दिया।
इसलिए नहीं कूकती कोयल
कि हमने उसे चिढाना छोड दिया।
इसलिए खेत अब नहीं लहलहाते
कि हमने हंसना छोड दिया।
इसलिए नहीं अब सांझ शरमाती
कि हमने उसे आईना दिखाना छोड दिया।
इसलिए अब नहीं खिलखिलाते फूल
कि हमने उन्हें हंसाना छोड दिया।
इसलिए नहीं अब बारिश हंसती
कि हमने अब उसमें नहाना छोड दिया।
इसलिए नहीं अब अब गुनगुनाते भौंरे
कि हमने मुस्कुराना छोड दिया।।

4 comments:

अनिल भारद्वाज, लुधियाना said...

जिंदगी की इस आपाधापी में अपना नाता ही प्रकृति से नाता तोड लिया है। यही वजह है कि अब हमें इनके रस का आनंद नहीं आता और न ही हम अब इनके काबिल रह गए हैं। भावनाओं से भरी यह कविता हमें सोचने पर मजबूर करती है। बहुत बढिया। लिखते रहो।

अमिताभ मीत said...

सही है भाई.

Udan Tashtari said...

बढ़िया है.

Abhishek Ojha said...

बहुत सुंदर !
ये बातें तो हम भूल ही गए थे... रात को आसमान कैसा दिखता है. और कोयल के साथ कू करना..