Sunday, April 6, 2008

इस बदलते दौर में


इस बदलते दौर में इतना तो ख्याल रखा है।
हया के चादर में रिश्तों को संभाल रखा है।।

तलाशते तलाशते जिनको इक उम्र गुजर गई अपनी।
उस मंजिल को तमाम रास्तों ने संभाल रखा है।।

मुकददर को कोसने वालों सुन लो।
अपने हाथों में तुमने वो मलाल रखा है।।

इस सूरत में ढूढते हो हमारे सीरत की तस्वीर क्यूं।
वक्त ने दे के सबकुछ हमें अब भी फटेहाल रखा है।।

हो तो जरा मसजिद तक हो आउं मैं भी।
इक मुददत से इस दिल गुनाहों को पाल रखा है।।
अबरार अहमद

5 comments:

mehek said...

beautiful,aapki har gazal ka andaz-e-bayan alag sundar hota hai.
http://mehhekk.wordpress.com/

Anonymous said...

बहुत अच्छा। दिल खुश कर दिया अबरार तुमने

अनिल भारद्वाज, लुधियाना said...

दिल खोल कर रख दिया। ऐसे ही लिखते रहो

राज भाटिय़ा said...

हो तो जरा मसजिद तक हो आउं मैं भी।
इक मुददत से इस दिल गुनाहों को पाल रखा है।।
अबरार अहमद सब बातो का निचोड कर दिया आप ने ,कितने अच्छे से लिखा हे एक सच को जिस सच से दुनिया मुह फ़ेर कर निकल जाती हे, खुदा तुम्हारी कलम को खुब हिम्मत दे, मे दिल से कायल हो गया हु आप का

भागीरथ said...

इस गजल के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता सिर्फ महसूस किया जा सकता है। वाकई दिल में उतर गई।