Wednesday, April 23, 2008

ये मुहब्बत की इन्तहां नहीं तो

ये मुहब्बत की इन्तहां नहीं तो और क्या है।
समंदर आज भी प्यासा है किसी की चाहत में।।
शोरगुल में जिंदगी को ढुढते हो ये दोस्त तुम भी।
कभी गौर से देखना इसे खामोशी की आहट में।।
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जी तो करता है कि आज फिर से चूम लूं तेरी पेशानी को।
पर अफसोश आज मैं तुझसे से कहीं छोटा हूं।
वक्त ने छीन लिए सारे कांधे मुझसे।
इसलिए अब दीवारों से लग के रो लेता हूं।।
जी तो करता है कि आज फिर से चूम लूं तेरी पेशानी को।
पर अफसोश...................
अबरार अहमद

3 comments:

राज भाटिय़ा said...

बहुत खुब अबरार मियां ,दिन पर दिन आप की कलम गजव ढा रही हे.

mehek said...

wah wah bahut badhiya

L.Goswami said...

उम्दा प्रस्तुति !! अच्छी कविता ..