Friday, March 13, 2009

इस शहर में अब कोई भी दस्तूर नहीं रहा

आंखों में शर्म चेहरे पर अब नूर नहीं रहा।
इस शहर में अब कोई भी दस्तूर नहीं रहा।।

हर कोई चिल्ला रहा है एक दूसरे पर अब।
लगता है शहर में कोई भी मजबूर नहीं रहा।।

इन फासलों से कह दो अब समेट लें खुद को।
कदमों से रास्ता अब कोई भी दूर नहीं रहा।।

हर कोई देखता है उसे हिकारत की नजर से।
उस शख्स का अब यहां कोई मंसूर नहीं रहा।।

आंखों में शर्म चेहरे पर अब नूर नहीं रहा।
इस शहर में अब कोई भी दस्तूर नहीं रहा।।

6 comments:

Neeraj Rohilla said...

वाह,
मन खुश हो गया क्या बढिया गजल कही है। आज काफ़ी दिनों बार नजर पडी चिट्ठों पर लेकिन अब आना जाना लगा रहेगा।

आभार,

Neeraj Rohilla said...

आंखों में शर्म चेहरे पर अब नूर नहीं रहा।
इस शहर में अब कोई भी दस्तूर नहीं रहा।।


इस शेर की तारीफ़ में क्या लिखें बस महसूस कर रहे हैं। हर पुराने शहर के मर्सिया में इसे लिखा जा सकता है।

अनिल भारद्वाज, लुधियाना said...

Excellent.

संगीता पुरी said...

बहुत ही सुंदर ...

राज भाटिय़ा said...

बहुत ही खुब सुरत.
धन्यवाद

mehek said...

waah behad khubsurat