Wednesday, October 29, 2008

यह हमारी आस्था का सवाल है

कई दिनों से ब्लाग से दूर रहा। इसके लिए सभी ब्लगर साथियों से क्षमा चाहूंगा। थोडी व्यस्तता रही इन दिनों या यूं कह लें कि फेस्टिवल सीजन ने उलझाए रखा। काम ही अपना ऐसा है। खैर इन दिनों बहुत कुछ ऐसा रहा जिससे हम ही नहीं पूरी दुनिया सकते में रही। आर्थिक मंदी ने पूरी दुनिया को यह दिखा दिया कि अमेरिका से लेकर जापान तक कभी भी ढह सकते हैं। पूंजी का दम दिखा लोगों को। सेंसेक्स ऐसा गिरा कि कईयों को ले गया। आईसीआईसीआई बैंक के दिवालिया होने की अफवाह भी उडी और कामत जी को स्थिति साफ करनी पडी। जेट ने राज ठाकरे के नाम पर 1900 कर्मचारियों को फिर नौकरी पर रखा तो एक बिहारी युवक को सरेआम एनकाउंटर कर दिया गया। अब असल मुददे पर चलते हैं। कई दिनों से दिमाग में एक बात चल रही है। मन में अजीब हलचल है। पेशानी पर बल पडे हुए हैं और मन में ऐसी भडास है कि फट जाने को जी कर रहा है। बाजार आज पूरी तरह से हम पर हावी हो चुका है। आज जो कुछ बाजार चाह रहा है हम वही कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि बाजार मदारी है और हम बंदर। आज हमारी आस्था यह बाजार तय कर रहा है। हमें कैसे पूजा करनी है, त्योहार या पर्व पर क्या करना है क्या नहीं करना यह सब बाजार तय कर रहा है। गरीब का तो कोई धर्म ही नहीं बचा। कोई त्योहार ऐसा नहीं बचा जिसे वह पूरी आस्था से पूरे साजो सामान के साथ मना सके। पुराने रस्म और पुरातन चीजों की जगह बाजार के रेडिमेट आइटमों और नए रस्मों ने ले ली है। चीजें बदल रही हैं बडी तेजी से बाजार के लिए। जगह जगह कुछ ऐसे लोगों को बिठा दिया गया है जो हमे बाजार के हिसाब से आस्था को पूरी करने की सलाह दे रहे हैं। संचार और समाचार के माध्यम भी बाजार के मुताबिक पढा रहे हैं और दिखा रहे हैं। यह एक बुरा संकेत है। अब हमे यह तय करना है कि हमे बाजार के हिसाब से चलना है या खुद के। सवाल जरा कठिन है लेकिन जवाब हमे ढूढना ही होगा।

Sunday, October 12, 2008

कभी इश्क ने जुदा किया कभी इश्क ने मिला दिया

कभी इश्क ने जुदा किया कभी इश्क ने मिला दिया।
कभी इश्क ने हंसा दिया कभी इश्क ने रुला दिया।

पलकों पर जब भी नींद ने रखने चाहे अपने कदम।
नजरों ने तेरी आ के मुझे आहिस्ते से जगा दिया।।

हर रास्ते पर अब तो मुझे मंजिल नजर आने लगी।
तूने हाथ क्या पकडा मेरा हर फासला मिटा दिया।।

जिंदगी कितने रंगों में अब मेरे सामने आने लगी।
बेरंग ख्वाबों में मेरे तूने रंग भरना सीखा दिया।।

कभी इश्क ने जुदा किया कभी इश्क ने मिला दिया।
कभी इश्क ने हंसा दिया कभी इश्क ने रुला दिया।

Thursday, October 9, 2008

रावण तुम्हे जिंदा रहना होगा

रावण तुम जिंदा रहो यूं ही। सालों साल,सदियों तक। ऐसे ही अपने दसों चेहरों के साथ। अगर तुम मर गए तो राम का क्या होगा। सच्चाई का क्या होगा। तुम ही तो वह एकमात्र साक्ष्य हो जो कहता है कि इस धरती पर कभी राम ने अवतार लिया था, इस धरती पर कभी धर्म का अधर्म से युद्ध हुआ था, सच के सामने बुराई का नाश हुआ था। अब राम सेतु को ही ले लो। आज तक उसके अस्तित्व पर सवाल उठाए जा रहे हैं कल हो सकता है राम के अस्तित्व पर सवाल खडा हो जाए तो जवाब कौन देगा। कौन लोगों को बताएगा कौन सरकार को बताएगा कि राम ने धरती पर अवतार लिया था। इसलिए हे रावण तुम्हारा जिंदा रहना जरूरी है। बेहद जरूरी। हे रावण तुम्हारा जिंदा रहना इसलिए भी जरूरी है कि तुम एक बडे शिक्षक हो इस समाज के लिए, हमारी नई पीढी के लिए अगर तुम्हारा अंत हो गया तो हमारे समाज को रास्ता कौन दिखाएगा हमारी भावी पीढी को सचाई और बुराई का फर्क कौन समझाएगा। आज हममें वो कुबत नहीं रही कि हम अपने बच्चों को सही राह दिखा सकें, आज हम खुद झूठ और बुराई का सहारा ले रहे हैं। इसलिए हे रावण तुम्हारा जिंदा रहना अति आवश्यक है।

Sunday, September 28, 2008

अमर उजाला में गूंजे लफ्ज


राष्ट्रीय हिंदी दैनिक अमर उजाला ने अपने 25 सितंबर के अंक में संपादकीय पेज के ब्लाग कोना कालम के तहत लफ्ज को स्थान दिया है। इस लेख में इसलाम और इंसानियत को जिंदा रखने की बात मैंने उठाई थी। अमर उजाला का आभार जो उसने इस समसामयिक विषय पर लिखे लेख को इंटरनेट के माध्यम से निकालकर जन जन तक पहुंचाया। क्योंकि भले ही हम इसे इंटरनेट युग कहें लेकिन यह सच है कि अभी भी देश की एक बडी आबादी इंटरनेट की पहुंच से दूर है।

Tuesday, September 23, 2008

इस्लाम और इंसानियत खतरे में

मन अंदर ही अंदर मुझे कचोट रहा है। एक अरसे से। संभालने की कोशिश की एक आम आदमी की तरह। एक आम हिंदुस्तानी की तरह मगर रोक न सका खुद को। चाहे जयपुर धमाका हो या अहमदाबाद, यूपी के तमाम शहरों में बम फटे हों या दिल्ली को तबाह करने की नापाक कोशिश की गई हो हर बार दिल से एक आह जरूर निकली। एक पत्रकार होने के नाते भले ही रोया नहीं लेकिन इंसान होने के नाते आंखें नहीं मानीं। बेगुनाह लोगों को निशाना बनाने उनहें मारने और तबाही फैलाने का हक कोई भी धर्म किसी को नहीं देता। इस्लाम भी नहीं। इस बात को समझना होगा।
इंडियन मुजाहिददीन के नेटवर्क के खुलासे ने सबको चौंका दिया है। इस आतंकी फौज में जितने भी सदस्य शामिल हैं वह 16 से 30 साल के हैं। सब पढे लिखे और सभ्य परिवारों से हैं। इनके परिवार का कोई भी सदस्य अपराधी पृष्ठभूमि से नहीं। यह युवक भी पढे लिखे हैं और इनमें से कई उच्च शिक्षा हासिल कर रहे थे और सबसे अहम बात यह कि अब तक जीतने भी युवक पकडे गए हैं वह सभी मुसलमान हैं। और जो नाम सामने आ रहे हैं वह भी मुस्लिम ही हैं।
मैं खुद मुसलमान हूं और इस खुलासे से आहत हूं। मेरा मानना है कि अब वाकई में इस्लाम खतरे में है और इसे बचाने के लिए जेहाद की जरूरत है। वह कौन लोग हैं जो आपके बच्चों को बरगला कर आतंक की राह पर पहुंचा रहे है। क्या वजह है कि पढा लिखा मुसलमान इंसानियत का फर्ज भूलकर तबाही की राह पकड रहा है। वह कौन है जो इस्लाम को नेस्तानाबूद करने पर तूला है। जरूरत है तो अपने बच्चों को सही तालिम देने की। उन्हें समझाने की और इंसानियत का पाठ पढाने की ताकि हमारी अगली पीढी किसी नापाक हाथ की कठपुतली न बन सके। देश भर के मुसलमान भाईयों को अब जेहाद छेडनी होगी तभी इस्लाम को बचाया जा सकेगा तभी इंसानियत को बचाया जा सकेगा।
यह एक लंबी लडाई है। लेकिन इसकी शुरुआत आज से ही हो जानी चाहिए। अगर इस्लाम को बचाना है तो हमे अपनी अगली पीढी को सही राह दिखानी होगी। वह राह जो दिन की राह है। और यह जिम्मेदारी हमारे धर्म गुरुओं की है। जरूरत है कि वह आगे आएं और लोगों से इस बात कि अपील करें उन्हें सही राह दिखाएं।आतंकवाद के खिलाफ उलेमा आगे आए हैं लेकिन इस बात को एक सिस्टम के तहत लाना होगा। उन्हें धर्म का सही मकसद और इंसानियत का पाठ पढाने के लिए एक व्यवस्था बनानी होगी। आखिर यह इस्लाम के वजूद का मामला है। इंसानियत के वजूद का मामला है।

Tuesday, September 16, 2008

दर्द को सीने में हमसे पिरोया न गया

दर्द को सीने में हमसे पिरोया न गया
गिरते रहे आंसू मगर जी भर रोया न गया।
तुमको पाने की जिद में कुछ यूं जागा कि
सदियों तक इन आंखों से सोया न गया।।
किसी शबनम ने तर कर दिया मुझको ऐसे कि
चाहकर भी कभी इस बदन को भिगोया न गया।।

Monday, September 1, 2008

आखिर हम भी एक दिन बेइमान हो गए

ये तोहमत कि हम बदजुबान हो गए।
इसी बहाने कुछ अपने कद्रदान हो गए।

इमानदारी के लफ्जो को बेचते बेचते।
आखिर हम भी एक दिन बेइमान हो गए।।

हर रोज जानवरों का किरदार निभाते रहे।
पूछा जो खुदा ने तो कहा हम इंसान हो गए।।

हमारी शक्ल देखकर रास्ता बदलने वाले।
आज क्या बात कि सरकार मेहरबान हो गए।।

क्या बना दूं और कौन सी नियामत लाऊं।
बडी मुददत के बाद वो मेरे मेहमान हो गए।।

हमने झेले हैं गमों और मुश्किलों के तुफां को।
आप तो इन आंधियों में ही परेशान हो गए।।

Thursday, August 7, 2008

वो मिली तो जिंदगी हयात हुई

गुमसुम से हैं आप आज क्या बात हुई।
इस सुनहरी सुबह में क्यूं धुधली रात हुई।।

ऊपर वाले को भी तनहाई न रास आई तो।
जरा जरा करके हम इंसानों की कायनात हुई।।

इक मुददत तक तडपता रहा इंतजार में मैं।
रुह निकली तो उनसे मुलाकात हुई।।

जिंदगी नर्क थी जब तक न मिली थी उसे।
वो मिली तो जिंदगी हयात हुई।।

कतरा कतरा जीने में क्या रखा है।
ऐसे जीयो कि जिंदगी हर रोज बारात हुई।।

मांगते मांगते जुबान मे पड गए छाले।
अपना हक आज वो खैरात हुई।।

Monday, August 4, 2008

दर्द को हंसी के पैबंदों में छुपाते क्यूं हो

दर्द को हंसी के पैबंदों में छुपाते क्यूं हो।
रोने का सबब है यह मुस्कुराते क्यूं हो।।

ये वो हैं जिन्होंने न सुधरने की कसम खा रखी है।
इन लोगों को आखिर आईना दिखाते क्यूं हो।।

वही होगा जो मुकददर ने तय कर रखा है।
रह रह कर यही राग सुनाते क्यूं हो।।

तुमको शिकवा है कि सही राय नहीं देता मैं।
फिर हर बार मुझे अपने घर बुलाते क्यूं हो।।

Thursday, July 24, 2008

या खुदा आहिस्ता आहिस्ता यह रात चले

देख लो जो जरा कि जज्बात चले।
लब खुलें जो तुम्हारे तो बात चले।

चांद भी है और मेरा महबूब भी।
या खुदा आहिस्ता आहिस्ता यह रात चले।

आज विरान हो गया यह शहर कल तक जो आबाद था।
देखो किस रफ्तार से ये बेरहम हालात चले।।

किसी से मिलना तो इतनी गुंजाईश जरूर रखना।
कुछ चले ना चले इक अदद मुलाकात चले।।

चांद की सैर करी, तारों को तोड लाया मैं।
बैठे बैठे दिमाग में क्या क्या ख्यालात चले।।

देख लो जो जरा कि जज्बात चले।
लब खुलें जो तुम्हारे तो बात चले।

Tuesday, July 15, 2008

ढूढती होगी मां बेचैन नजरों से मुझे

तुमको देखा तो खामोशी से तर हो गया।
जिंदगी तेरी राहों में मैं रहगुजर हो गया।।

ताउम्र ना भरी चोट जिनसे लगी।
उन निगाहों का सदके नजर हो गया।।

रोते रोते अचानक मैं हंसने लगा।
उसकी सोहबत का ऐसा असर हो गया।।

तुमने ही तो लगाया था यह पौधा कभी।
पूछते हो हमसे यह कैसे जहर हो गया।।

ढूढती होगी मां बेचैन नजरों से मुझे।
घर से निकले हुए इक पहर हो गया।।

तुमको देखा तो खामोशी से तर हो गया।
जिंदगी तेरी राहों में मैं रहगुजर हो गया।।

Saturday, July 12, 2008

किस हक से अब गैरों को बुलाया जाए

सूनी आंखों में ख्वाबों को सजाया जाए।
चलो दूर कहीं इक शहर बसाया जाए।।

कब तक सोएगा मुसाफिर उस फुटपाथ पर।
सर तक धूप चढ आई है उसे जगाया जाए।।

जब अपनों ने ही नहीं छोडा किसी काबिल तो।
किस हक से अब गैरों को बुलाया जाए।।

क्यूं कहूं दोस्त तुमको,क्यूं तुम्हें याद करूं।
किस काम कि दोस्ती,जिसमें हर गम सुनाया जाए।।

देखते देखते कितने दूर चले गए तुम तो।
तुम्ही बताओ ना तुम्हें कैसे बुलाया जाए।।

बहुत रात हो चुकी है सोचते सोचते।
चलो चादर से अब इन सितारों को हटाया जाए।।

Tuesday, July 8, 2008

मुलायम जी क्या होगा इस सरकार का

क्या केंद्र की यूपीए सरकार गई। यह सवाल आज हर हिंदुस्तानी की जुबान पर है। एक लंबे मंथन के बाद आखिरकार वामपंथियों ने सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। हालांकि समाजवाद के झंडाबरदार मुलायम सिंह यादव ने सरकार को समर्थन देने का फैसला किया है लेकिन क्या सरकार बरकरार रहेगी यह तो सदन में शक्ति परीक्षण के बाद ही तय होगा। अगर सरकार जाती है तो अमेरिका से हुए आणविक समझौते पर आंच जरूर आ जाएगी।
लोकसभा चुनाव अब बहुत दूर नहीं। यह बात वामपंथी अच्छी तरह जानते हैं। अब लोकसभा चुनाव वह सरकार के साथ मिलकर तो लड नहीं सकते। इसलिए सरकार का कार्यकाल पूरा होने तक साथ रहने का सवाल ही पैदा नहीं होता था। अब कार्यकाल से पहले सरकार का साथ छोडना है तो उसका कारण भी चाहिए। आणविक समझौते से बढिया विकल्प उन्हें मिल भी नहीं सकता था। अब एक अरसे तक बातचीत, चेतावनी और मान मनौवल के बाद उन्हें एक रास्ता तो चुनना ही था सो चुन लिया।
अब बात जरा मुलायम है। सरकार बनी तो यूपीए ने अमर सिंह और मुलायम को पूछा भी नहीं। हालांकि अमर सिंह बिन बुलाए मेहमान की तरह सरकार को समर्थन देने सोनिया गांधी के यहां पहुंचे भी थे। खैर सरकार भी बन गई और वामपंथियों के सहयोग से चलने भी लगी। इस दौरान कई बार समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस पर कई तीखे वार किए। इस दौरान कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को भी अमर सिंह ने नसीहत दे डाली और सोनिया पर भी बरसे। अब ऐसा क्या हो गया कि कांग्रेस समाजवादी पार्टी की हितैसी नजर आने लगी है। और तो और आणविक करार भी देशहित में नजर आने लगा है। कहीं यह उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के कोप से बचने का उपाय तो नहीं। कहीं यह अगला लोकसभा चुनाव कांग्रेस और यूपीए घटक के साथ मिलकर लडने का पहला कदम तो नहीं।

Wednesday, July 2, 2008

एक अरसे बाद गुजरा था उसी मोड से मैं

थम गईं सांसे,रुक गई दिल की धडकन।
एक अरसे बाद गुजरा था उसी मोड से मैं।।

जहां पहली बार तुम्हे देखा था।
जहां पहली बार तमसे की थी बात।
जहां पहली बार तुम सकुचाईं थीं।
जहां पहली बार बोलीं थीं तुम।

जहां अक्सर हम मिल ही जाते थे।
जहां पहुंचकर तुम सिकुड जाती थीं।
जहां कुछ देर वक्त ठहर जाता था।
जहां मेरा हर गम निपट जाता था।।

जहां तुमने किया था इकरार कभी।
जहां पूरे हुए थे मेरे ख्वाब सभी।
जहां दौडा था जी भर के खुशी से कभी।
जहां बैठे रहते थे छुपके दोस्त सभी।।

जहां आखिरी बार मिले थे उस दोपहरी में।
जहां आखिरी बार तुम्हें जी भर देखा था।
जहां आखिरी बार चला था साथ तेरे।
जहां आखिरी बार भरी थी गहरी सांस मैंने।।

अब तो यह मोड भी पूछती है मुझसे।
क्यूं छोड कर चली गई तुम मुझको।
अब यहां से गुजरने में डर लगता है।
जैसे इस मोड पर खडी तुम तलाशती हो मुझे।।

Sunday, June 29, 2008

हम आइने की तरह साफ हैं

हम आइने की तरह साफ हैं।
जो हकीकत है वही दिखाते हैं।।

घरों को तोडने वालों जरा उनसे पूछो।
तिनका तिनका जोड के जो घर बनाते हैं।।

जिंदगी के हर मोड पर जिनके साथ खडे रहे।
वक्त पडने पर क्यूं वही हमें आजमाते हैं।।

हम खा चुके हैं धोखा किसी पर भरोसा करके।
जमात न बढे अपनी इसलिए हर वादा निभाते हैं।।

वक्त ने छीन लिए जब सारे राजदार हमसे।
हम भी इंसान हैं दीवारों को अपने किस्से सुनाते हैं।

Saturday, June 28, 2008

मुझे मत मारो,मुझे जीने दो

आज सुबह जैसे ही टीवी चालू किया एक ऐसी खबर सामने आई जिसने सोचने पर मजबूर कर दिया। और मैं तो यह कहूंगा कि इस खबर पर हर मां बाप को सोचना चाहिए कि आखिर हम अपने बच्चे को क्या दे रहे हैं अपनी अगली पीढी को कहां ले जा रहे है। हम क्यूं उनसे उनका बचपन छीनकर उन्हें समय से पहले बडा बना रहे हैं और इसके लिए यह हक हमें किसने दिया। हां आपको वह खबर तो बता दूं। खबर थी कि कोलकाता के एक रियालिटी शो के दौरान जजों ने एक बच्ची को कुछ इस तरह बेइज्जत किया कि वह कोमा में चली गई। शिंजनी नाम की यह लडकी अब न बोल पा रही है न सुन पा रही है। अब सवाल यह उठ रहा है कि क्या हम अपनी संतानों को उस मुहाने पर लाकर नहीं खडा कर रहे या उस दिशा में नहीं भेज रहे जहां वह अपना मानसिक और शारीरिक संतुलन खो सकते हैं। क्या हम उनके उपर समय से पहले वह बोझ नहीं डाल रहे जो एक तय सीमा के बाद पडना चाहिए। क्या बच्चों को प्रतिस्पर्धा की बेदी पर चढाना सही है। एक वक्त था जब मां बाप अपने बच्चों को पांच साल की उम्र तक स्कूल नहीं भेजते थे। पांच साल की उम्र तक बच्चा अपने बचपने को जीता था दोस्तों के साथ खेलता था और मस्ती करता था और जब पांच साल की उम्र में उसका स्कूल में दाखिला होता था तो नर्सरी क्लास उस बच्चे को मिलती थी। नर्सरी के बाद वह पहली जमात में पहुंचता था। मगर अब हालात बदल चुके हैं अब तो दो साल के बच्चे स्कूल जाने लगे हैं। स्कूलों ने भी यूकेजी एलकेजी तो इस तरह की तमाम क्लासें इजाद कर दी हैं जो इन बच्चों के बचपन को निपटा रही है। हां इस व्यवस्था में मां बाप की गैर जिम्मेदारी पूरी तरह से झलकती है। मां बाप भी बच्चों को पालने से डरते हैं या उनके पास इतना समय नहीं बचा कि वह अपने बच्चे के बचपने को सहेज सकें। यह तो सब जानते हैं कि सबकी आईक्यू एक बराबर नहीं होती और हो भी नहीं सकती क्योंकि उपर वाले ने कुछ भी एक जैसा नहीं बनाया और न बनाएगा। फिर हम क्यों अपने बच्चों को एक जैसा बनाने पर तूले हैं। हम क्यूं चाहते हैं कि हमारा बच्चा आलराउंडर निकले। वह गवइया भी बने, नाचे भी और तबला भी बजाए। साथ ही पढे भी। हम क्यों उसे एक ऐसे मंच पर ढकेल देते हैं जहां उसे उस उम्र में वह मानसिक और शारीरिक तनाव झेलना पडता है जो उसके मौजूदा मानिसक और शारीरिक हिसाब से बहुत बडी है। मैं उन सभी मां बाप से अपील करता हूं कि इस मामले पर एक बार गौर से सोचे और अपने बच्चे की आंखों में झांक कर देखें कि क्या उसका बचपन छीनने का हक आपको है।

Tuesday, June 24, 2008

टीवी युग में अखबार

त्वरित संचार के इस काल में जब हर शहर की छोटी बडी खबरें हमारे टीवी स्क्रीन पर उपलब्ध हो जा रही हैं तो अखबार क्यों। यह वह सवाल है जो नई पीढी का कोई भी बंदा बेझिझक पूछ सकता है। सवाल वाकई में सोचने पर मजबूर करता है कि अखबार क्यों। आज जब हमारे पास इतना वक्त नहीं कि हम चैन से सो सकें या अपने बच्चों का होमवर्क करा सकें तब 18 या 22 पेज का कोई अखबार पढना एक आदमी के लिए कितना मुनासिब हो सकता है। यह प्रेक्टिकल बात है इस पर गौर करने की जरूरत है। मौजूदा समय में अखबार को जो सबसे ज्यादा चुनौती मिल रही है वह इंटरनेट से है। इंटरनेट पर आज हर खबर मौजूद है। बावजूद इसके अखबार का वजूद अब भी देश में बहुत मजबूत है और आने वाले समय में इस वजूद में इजाफे की पूरी संभावनाएं दिख रही हैं। यह भी सोचने वाली बात है। अखबार का प्रसार और पाठक संख्या जैसा कि अखबारों के सर्वे बताते हैं बढती ही जा रही है। इसके कई कारण हैं। इन सभी कारणों पर बाकायदा बहस कराई जा सकती है। अखबारों के बढने के पीछे एक मजबूत कारण जो मुझे दिखाई देता है वह यह है कि अखबार आज हमारे लिए स्टेटस सिंबल की तरह काम कर रहे हैं या फिर अखबार लेना एक तरह की मजबूरी हो गई है कि अखबार तो घर में आना ही चाहिए चाहे उसे कोई पढे या न पढे। हां एक बार नजर दौडा ली जाए तो बेहतर है। दूसरा कारण जो अभी दिखाई दे रहा है वह लाभ कि स्थिती से है। अखबारी दुनिया में आए बूम ने देश में जो प्रतिस्पर्धा पैदा कर दी है उसका नतीजा यह निकला है कि अब देश के अधिकांश अखबार स्कीम की बदौलत बिक रहे हैं। साथ ही सालाना बुकिंग के साथ। इसमें अखबार की रददी और गिफ्ट का बडा रोल है। यह दो मुख्य वजहें अभी फिलहाल तो अखबारों के प्रचार प्रसार और पाठक संख्या को बढा रही हैं। केबल और इंटरनेट के इस युग में अखबार जिंदा है वह भी पूरे शान के साथ। कारण चाहे कुछ भी हो और अखबार आने वाले समय में भी इसी तरह जिंदा रहेगा अब यह देखना है कैसे। चलिए सुबह अखबार भी पढना है।

Sunday, June 22, 2008

चलो ना कहीं दूर चलें

चलो ना कहीं दूर चलें,इस भीडभाड से।
जहां भोर अजान और हनुमान चालीसा से हो।
जहां सुबह को मुर्गा बांक दे।
दोपहर उस बागीचे की छांव में गुजरे।
शाम हरे भरे खेतों की मेढों को नापे।
और रात इतनी लंबी हो कि हर थकान मिट जाए।।
चलो ना कहीं दूर चलें,इस भीडभाड से।
जहां कल को संवारने में आज न खराब हो।
जहां सुख दुख के साथी तमाम हों।
जहां दादी नानी का प्यार हो।
जहां रिश्तों की दरकार हो।
चलो ना कहीं दूर चलें,इस भीडभाड से।
चलो ना कहीं दूर चलें,इस भीडभाड से।।

Saturday, June 21, 2008

हर लम्हा मारकर भी जिलाती रही मुझे

कुछ इस तरह से जिंदगी सताती रही मुझे।
हर लम्हा मारकर भी जिलाती रही मुझे।।

गफलत में न पड जाउं कभी किसी गुमान में।
हर रोज एक बार वो आइना दिखाती रही मुझे।।

इस डर से कि कभी दूर न हो जाउं उससे मैं।
रह रह के बार बार वो बुलाती रही मुझे।।

संजीदगी मेरे चेहरे पे नागवार थी उसको।
चेहरा बदल बदल कर वो हंसाती रही मुझे।।

हर रंग दुनियादारी का देख रखा था उसने।
इसलिए अपने आंचल में वो छुपाती रही मुझे।।

कुछ इस तरह से जिंदगी सताती रही मुझे।
हर लम्हा मारकर भी जिलाती रही मुझे।।

Tuesday, June 17, 2008

तेरे शहर में तुझे ढूढते जमाने गुजर गए

मिलते थे जिनसे रोज वो जाने किधर गए।
तेरे शहर में तुझे ढूढते जमाने गुजर गए।।

टुकडों टुकडों की नींद से बटोरे थे कुछ सपने।
ऐसी हवा चली कि वो सारे बिखर गए।।

वक्त ने क्या सितम किया कैसे बताएं हम।
वो हर शहर उजड गया हम जिधर गए।।

न जाने क्या कशिश थी उसकी निगाह में।
जिन पर पडी नजर वो कातिल सुधर गए।।

मिलते थे जिनसे रोज वो जाने किधर गए।
तेरे शहर में तुझे ढूढते जमाने गुजर गए।।

Monday, June 16, 2008

हां अब बदल गया इंसान

बच्चे नहीं खेलते अब गलियों में।
भौंरे नहीं आते अब कलियों में।
क्यों अब माएं नहीं सुनाती लोरी।
क्यों सपने सारे हो गए चोरी।।
हमने खो दी अपनी पहचान।
हां अब बदल गया इंसान।
हां अब बदल गया इंसान।।

कहां गए खेत खलिहान।
कहां गई अपनी दालान।
क्यों अब हम एक साथ नहीं खाते।
चंदा मामा अब क्यों नहीं आते।।
क्योंकि हमने खो दी अपनी पहचान।
हां अब बदल गया इंसान।
हां अब बदल गया इंसान।।

दूसरे का सुख अब नहीं देखा जाता।
सच बोलना अब हमें नहीं आता।
छोड दिया अब हाथ से खाना।
पांव छूने का गया जमाना।
अंगरेजी बनी हमारी शान।
क्योंकि हमने खो दी अपनी पहचान।
हां अब बदल गया इंसान।
हां अब बदल गया इंसान।।

Saturday, June 14, 2008

जिंदा रहने के लिए सौ बार भी मर जाउंगा

सांस दर सांस तेरे जिश्म में उतर जाउंगा।

जिंदा रहने के लिए सौ बार भी मर जाउंगा।।

इक मुददत के बाद अब जाकर खुद को जोडा है।

अबकी रूठोगे तो हर सिम्त बिखर जाउंगा।।

जानता हूं कि शक्ल ओ सूरत से बडा कमतर हूं।

पर एक ना एक दिन उन आंखों में संवर जाउंगा।।

मैं तो मुसाफिर हूं जरा देर के लिए ठहरा हूं।

हकीकत यही है कि यहां से भी गुजर जाउंगा।।

इस उम्र में कर लेने दो नादानियां जी भर के मुझे।

वक्त जब आएगा तो मैं भी सुधर जाउंगा।।

सांस दर सांस तेरे जिश्म में उतर जाउंगा।

जिंदा रहने के लिए सौ बार भी मर जाउंगा।।

Monday, June 9, 2008

उस जनवरी की वह सर्द भोर

आज भी याद है मुझको।

उस जनवरी की वह सर्द भोर।

जब नींद आंखों से गायब थी।

क्योंकि उनमें तू जो समाई थी।।

आज भी याद है मुझको।

उस जनवरी की वह सर्द भोर।।

यकीन नहीं होता अब।

कि तब किस्मत भी थी मेहरबान।

निकलता था जब भी कहीं।

तो तू मिल ही जाती थी।

और ऐसा लगता था।

मानो सफल हो गया जागना मेरा।

आज भी याद है मुझको।

उस जनवरी की वह सर्द भोर।।

अब तो एक अरसा गुजर गया।

अब तो देर तक सोता हूं।

अब जनवरी में ठंड भी बहुत लगती है।

लेकिन आज भी याद है मुझको।

उस जनवरी की वह सर्द भोर।।

Sunday, June 8, 2008

बिछ गई है बिसात शतरंज की

बिछ गई है बिसात शतरंज की अब।
एक को जीतना तो एक को हारना होगा।।

जिंदा रहने की इस लडाई में।
जाने किस किस को मारना होगा।।

झूठ इक उम्र जी चुका अपनी।
सच से अब उसका भी सामना होगा।।

ताउम्र टिक नहीं सकता कोई उस ऊंचाई पर।
इस हकीकत को तुम्हें भी मानना होगा।।

माथे की लकीरें पढने वाले अब कहां हैं दुनिया में।
सब झूठ का पुलिंदा है इस बात को जानना होगा।।

जब टूट जाए आस इस दुनिया से।
तब उस खुदा का हाथ ही थामना होगा।।

Saturday, June 7, 2008

अब तो आदत सी हो गई है मुस्कुराने की

बात पते की है इसलिए बतानी थी।
अब तो आदत सी हो गई है मुस्कुराने की।।

उन्होंने कह रखा है कि मुंह नहीं खोलना।
इसलिए अपनी आदत है गुनगुनाने की।।

रूठने वालों का दर्द हमको मालूम है।
इसलिए कोशिश करते हैं सबको मनाने की।।

अपने दरवाजे पर खडा रहता हूं जोकर बन कर।
जरा सी चाहत है मुसाफिरों को हंसाने की।।

हमसफर दोस्तों इस बात का ख्याल रखना।
तुम्हारे एक साथी की आदत है डगमगाने की।।

किसी से वादा बडा सोच समझ कर करते हैं।
क्या करें दिमाग में एक कीडा है जो सलाह देता है इसे निभाने की।।

बात पते की है इसलिए बतानी थी।
अब तो आदत सी हो गई है मुस्कुराने की।।

Thursday, June 5, 2008

जी भर देख लो तो

जी भर देख लो तो आंखों में उतर जाता है।
ये वो शहर है जो हर रोज उजड जाता है।।

हर रोज बिकती हैं यहां कई जिंदा लाशें।
पर अफसोस हर कोई तमाशबीन बन देखता रह जाता है।।

अपना खून गिरा तो खून दूसरे का गिरा तो पानी।
या खुदा क्या ऐसे ही इंसां का जमीर मर जाता है।।

ख्वाब न देख ऐसे जो आंखों में न समाएं।
हकीकत का आइना हर रंग उडा देता है।।

उस चांद को देखा है कभी पूरी अकीदत से।
किसी रोज वह भी एक चलनी में उतर जाता है।।

Sunday, June 1, 2008

ब्रेकिंग न्यूज ब्रेकिंग न्यूज

राजस्थान बना आईपीएल का शहंशाह
एक जबरदश्त मैच में चेन्नई के चीतों को मात देकर राजस्थान रायल्स ने आईपीएल का ताज अपने सर सजा लिया। मैच वाकई बहुत रोचक रहा। लास्ट दो ओवरों का मजा तो जबरदस्त था। इसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। खैर एक तमाशा खत्म अगले कर करिए इंतजार।

Saturday, May 31, 2008

वह हज्जाम भी था और.....

आज सुबह रोज की तरह उठकर अखबार को तलाशा। उसके हाथ में आते ही बैठ गया ढुढने खबरें। हां खबरों से रोज का वास्ता है लेकिन आदतन और मजबूरन खबरें पढनी ही पडती हैं। आदतन इसलिए कि इतने सालों से पढ रहा हूं तो तलब लगती है,मजबूरी इस बात की कि दूसरे अखबार क्या लिख रहे हैं, अपने सेंटर की कोई बडी खबर मिस तो नहीं हुई। खैर यह सब तो रोज का है नया यह कि अखबार जो मेरे हाथ में था उसमें उस खबर पर नजर टिक गई जिसमें उन तमाम मशहूर बावर्ची भाईयों का जिक्र था जो मुंबई में हाथोंहाथ बिकते हैं और जो तमाम फिल्मी और राजनैतिक लोगों की पार्टियों में उनके मेहमानों के लिए लजीज खाना तैयार करते हैं। अब आप कहेंगे कि इसमें ऐसी क्या बात है कि नजर टिक गई या इस पर पूरी पोस्ट लिखी जाए। सही है। मगर इन रसोईयों और पार्टियों ने मुझे वह बात याद दिला दी जिसे मैं आप सब से शेयर करना चाहता हूं। बात यूं है कि हम ठहरे गांव के और वह भी पूरे ठेठ गांव के। जहां मुश्किल से अभी दस साल पहले बिजली का आगमन हुआ। हमारे गांव में कुछ नहीं तो चार पांच सौ घर तो होंगे ही। अब गांव के सभी लोगों के दाढी और बाल बनाने के लिए दो हज्जाम थे। दोनों ने अपने अपने हिसाब से गांव को बांट रखा था। हफते में एक दिन आते थे और पूरे गांव की सफाई कर जाते थे। इनमें से एक सज्जन थे बदरेआलम। उम्र करीब 45 50 के दरम्यान की रही होगी। पूरे मजाकिया और मसखरे। बडों के बाल तो ठीकठाक काट देते थे मगर बच्चों के बात तो अजीब अजीब स्टाइल में काट देते थे। वह सारे स्टाइल इस समय या तो फैशन में हैं या कुछ दिन पहले तक फैशन में थे। मगर उस समय उस गांव के माहौल में मजाक का सबब। बच्चे गाली देते थे और वह हंसकर टाल देते, लेकिन अपनी आदत उन्होंने नहीं छोडी। अब सोचता हूं अगर वह होते या उनके हाथ चलते तो वह किसी महानगर में अच्छी खासी कमाई कर सकते थे। अरे मैं तो मूल मुददे से भटक रहा हूं। बात कर रहे थे बावर्चीगीरी की। तो गांव में जब भी कोई शादी होती या कोई ऐसा कार्यक्रम होता जिसमें गांव भर के लोगों का भोज होता तो यही दोनों हज्जाम खाना बनाते। हां इस काम में पूरा गांव उनका साथ देता। मसाले गांव भर की महिलाएं सिलवटों पर पीसतीं तो सारे मर्द प्याज छीलने से लेकर काटने तक का काम करते। यही नहीं चावल धोने से लेकर गोश्त धोने का काम भी मर्दों के जिम्मे होता। फिर हज्जाम आग जलाकर आग जलाता फिर देग चढाकर खाना बनाता। समय कहां से कहां पहुंच गया मगर सच पूछिए तो वह खाना और वह माहौल आज भी बहुत याद आता है।

Tuesday, May 27, 2008

क्यूं नहीं आती अब रात छत पर।

क्यूं नहीं आती अब रात छत पर।
क्यूं नहीं अब भोर गुनगुनाते हैं।।
क्यूं नहीं अब कूकती है कोयल।
क्यूं नहीं अब खेत लहलहाते हैं।।
क्यूं नहीं अब सांझ शरमाती है।
क्यूं नहीं अब फूल खिलखिलाते हैं।।
क्यूं नहीं अब बारिश हंसती है।
क्यूं नहीं अब भौंरे गुनगुनाते हैं।।

इसलिए रात नहीं आती छत पर
कि हमने छत पर जाना छोड दिया।
इसलिए अब नहीं गुनगुनाता भोर
कि हमने उसे बुलाना छोड दिया।
इसलिए नहीं कूकती कोयल
कि हमने उसे चिढाना छोड दिया।
इसलिए खेत अब नहीं लहलहाते
कि हमने हंसना छोड दिया।
इसलिए नहीं अब सांझ शरमाती
कि हमने उसे आईना दिखाना छोड दिया।
इसलिए अब नहीं खिलखिलाते फूल
कि हमने उन्हें हंसाना छोड दिया।
इसलिए नहीं अब बारिश हंसती
कि हमने अब उसमें नहाना छोड दिया।
इसलिए नहीं अब अब गुनगुनाते भौंरे
कि हमने मुस्कुराना छोड दिया।।

Monday, May 26, 2008

ब्लाग जगत के लिए यह खतरे की घंटी है

कहते है आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है। प्राचीन युग से अब तक हमें समय समय पर तमाम चीजों की जरूरत पडी और हमने अपनी जरूरत को महसूस करते हुए वह तमाम चीजें इजाद भी कीं। यह बात दिगर है कि उन तमाम चीजों में से कितनी ही आगे चलकर हमारे लिए घातक साबित हुईं। पिछले कुछ दिनों से ब्लागजगत पर हो रही हाय हाय और आरोप प्रत्यारोप से भी कुछ ऐसा ही इशारा मिल रहा है। ब्लाग का इजाद हुए अभी बहुत दिन नहीं हुए या यूं कह लें कि अभी ब्लाग जगत का शैशव काल ही चल रहा है। मगर अभी से इसके चिंताजनक वह पहलू सामने आने लगे हैं जो कुछ कुछ हमारे ही द्वारा इजाद किए गए उन चीजों से मेल खाते हैं जो हमारे लिए घातक साबित हुए। व्यक्तिगत रूप से अब मैं यह महसूस करने लगा हूं कि जिस ब्लाग को मैं या अन्य कुछ साथी हिंदी जगत या लेखनी के विकास का एक जरिया मान रहे थे या कुछ साथी अपने संस्मरण या अपने जज्बात सहेज कर रखने वाला एक सजाया गया कमरा समझ रहे थे दरअसल वह ब्लाग कुछ लोगों के लिए सिर्फ और सिर्फ बकवास निकाले, गाली गलौच करने एक दूसरे की बखिया उधेडने और एक दूसरे को नीचा दिखाने का जरिया बनता जा रहा है। यह निश्चित रूप से एक ऐसा बुरा संकेत है जो ब्लाग जगत के अंत या इसके बेहद कुरूप हो जाने का इशारा करता है। कुछ लोग बहुत जल्द बहुत बडा बनने का सपना देखते हैं और ऐसे लोग विवाद को विकास का साधन समझ हर रोज एक नया बखेडा खडा करना चाहते हैं ताकि ब्लाग जगते के लोग उनके पचडे में पडकर उन्हे अहमियत दें और वह दिनोंदिन मशहूर होते जाएं। यह एक ऐसी नापाक कोशिश है जिसे अगर ब्लागर समझ जाएं तो इनके मंसूबों पर पानी फिर सकता है। ऐसे ब्लागरों का बहिष्कार किया जाना चाहिए जो इस तरह की हरकत करें। यह ब्लागजगत के हित में है। यह एक अपील है।

Friday, May 23, 2008

आज सब इक ख्याल आया

आज सब इक ख्याल आया।
जवाब ढूढा मगर सवाल आया।।
क्यूं नहीं पूछ लिया उससे दिल की बात।
रह रह कर यही मलाल आया।।
जिसको नकारा समझती रही दुनिया।
जिंदगी के इम्तिहान में वह कमाल आया।।
अलहदा वो सबसे इसलिए है कि।
जहीन सबसे उसका जमाल आया।।
मुफ्त में खाने की पड गई आदत जिसको।
क्या फर्क पडता है क्या हराम आया क्या हलाल आया।।
आज सब इक ख्याल आया।
जवाब ढूढा मगर सवाल आया।।
अबरार अहमद

Thursday, May 22, 2008

सोचता हूं तो डर लगता है

सोचता हूं तो डर लगता है।
और नहीं सोचता हूं तो डरता हूं।।
कभी खुद के बारे में।
कभी दूसरों के बारे में।
उस सिग्नल पर बेसुध पडा वह आदमी ही था।
स्टेशन पर चिथडों में घूमने वाला भी आदमी ही था।
भूख से बिलखता हुआ वह बच्चा भी आदमी ही था।
उसी सिग्नल पर लंबी गाडी में एसी की हवा खा रहा वह आदमी ही था।
उसी स्टेशन पर लंबे कोट में सिगरेट के धुंए उडा रहा आदमी ही था।
उस होटल में कई लोगों का खाना बर्बाद करने वाला आदमी ही था।
सोचता हूं तो डर लगता है।
और नहीं सोचता हूं तो डरता हूं।।
कभी खुद के बारे में।
कभी दूसरों के बारे में।

Wednesday, May 14, 2008

चोट खाकर भी मुस्कुराते नहीं तो...

चोट खाकर भी मुस्कुराते नहीं तो क्या करते।
दिल के जज्बात दिल में दबाते नहीं तो क्या करते।।

भरी महफिल में जब उन्होंने न पहचाना हमको।
नजर हम अपनी झुकाते नहीं तो क्या करते।।

उनके दुपट्टे में लगी आग न हमसे देखी जाती।
हाथ हम अपना जलाते नहीं तो क्या करते।।

दोस्तों ने जब सरे राह छोड दिया मुझको।
तब हम गैरों को बुलाते नहीं तो क्या करते।।

किस मुददत से वो देख रहा था राह मेरी।
वादा हम अपना निभाते नहीं तो क्या करते।।

चोट खाकर भी मुस्कुराते नहीं तो क्या करते।।
दिल के जज्बात दिल में दबाते नहीं तो क्या करते।

Tuesday, May 13, 2008

15 मिनट, 9 ब्लास्ट और 70 जानें फनां

देश की गुलाबी नगरी जयपुर मंगलवार को खून से लतपथ लाल नगरी में तब्दील हो गई। शाम करीब सवा सात बजे से लेकर साढे सात बजे तक दहशत के जो धमाके हुए उन्होंने इस शहर को हिला कर रख दिया। जानकारी के मुताबिक करीब 180 लोग इन धमाकों में घायल हुए हैं। यह धमाके पुरी तरह से सुनियोजित थे। धमाकों के लिए जयपुर के वह इलाके चुने गए थे जो पूरी तरह से खचाखच भरे रहते हैं। यह इलाके जहा एक ओर पर्यटन के लिहाज से महत्वपूर्ण हैं वहीं मंगलवार होने के नाते इन इलाकों में हनुमान जी की पूजा करने के लिए अधिकांश लोग जमा हुए थे। धमाके उसी तरह किए गए जिस तरह से मुम्बई, हैदराबाद, फैजाबाद आदि शहरों में किए गए यानि इन धमाकों में भी साइकिल का इस्तेमाल किया गया। इन साइकिलों पर विस्फोटक रखे गए थे।
कहीं पर्यटन को निशाना बनाना मकसद तो नही
जम्मू कश्मीर में दहशतगर्दों ने पर्यटन को नुकसान पहुंचा कर वहां के लोंगों को आर्थिक तौर पर कमजोर कर दिया है। इसका असर वहां के लोंगे के रहन सहन और शिक्षा पर पडा है। जाहिर सी बात है जहां जहालत होगी वहां खुराफात तो पनपेगा ही। इसका सीधा असर यह हुआ है कि वहां के नौजवान आतंकवाद की तरफ मुड रहे हैं। दूसरे वहां के हालात खराब दिनों दिन खराब हो रहे हैं और आतंकवाद को बल मिल रहा है। राजस्थान भी पर्यटन की नजर से महत्वपूर्ण राज्य है। ऐसा लगता है कि आतंकवादी अब राजस्थान के पर्यटन को निशाना बनाना चाहते हैं। क्योंकि अगर वहां से भी पर्यटन उठ गया तो राजस्थान के हालात भी करीब करीब जम्मू कश्मीर की तरह हो सकते हैं। एक कारण यह भी है कि राजस्थान की सीमाएं भी पाकिस्तान से सटती हैं।
जागरूक होने की जरूरत
देश में हालात ऐसे है कि हर चौथे पांचवे महिने में कहीं ना कहीं सिलसिलेवार बम बलास्ट हो रहे हैं ऐसे में हम सब के जागरूक होने की जरूरत बढ गई है। अगर जनता जागरूक हो जाए तो ऐसी वारदातों को बहुत हद तक रोका जा सकता है। कहीं भी संदिग्ध बैग या लावारिस सामान के दिखते ही तुरंत पुलिस को सुचित करें। संदिग्ध लोगों पर नजर रखें। एकजुटता दिखाएं और बुराई के खिलाफ जंग को हमेशा तैयार रहें।

Saturday, May 10, 2008

मां मैं अंश हूं तेरा

मां मैं अंश हूं तेरा।
मुझमे समाहित हैं तेरे विचार
संस्कार तेरा प्यार।।
तू जननी है मेरी, मेरे गुणों की।
मां मैं अंश हूं तेरा।।

तूने ही मुझको चलना सीखाया।
ये जीवन है क्या तुम्ही ने बताया।।
मुसीबत से लडना भी तुमने सीखाया।
मैं आवाज हूं मां तेरी धडकनों का।
तू जननी है मेरी, मेरे व्यक्तित्व की।
मां मैं अंश हूं तेरा।।

जहां भी रहूंगा तेरा नाम लूंगा।
तेरे आंसुओं को अपनी पलकों पर थाम लूंगा।
मेरी हर खुशी तेरी चरणों में माते।
मैं कर्जदार हूं तेरी हर एक सांस का।
तू जननी है मेरी, मेरी भावनाओं की।
मां मैं अंश हूं तेरा।
मां मैं अंश हूं तेरा।।

मां यह शब्द सुनते ही हम खुद को सबसे सुरक्षित महसूस करते हैं। यह केवल एक शब्द ही नहीं ममता की वह विशाल छांव है जो हमे हर मुसीबत और विपदा से बचा कर रखती है। यह शब्द सुनते ही हम खुद को एक बच्चा महसूस करते हैं चाहे हमारी उम्र जो भी हो। साथ ही हमारा बचपना भी झलकने लगता है। सभी साथियों से अपील है कि इस कविता को पढने के बाद एक बार मां शब्द का उच्चारण जरूर करें। देखिएगा इससे कितना सुकून मिलेगा। तो कहिए मां।

Monday, May 5, 2008

मां अब मैंने देख ली है दुनिया

अब खुद उठकर पी लेता हूं पानी।
अब जली रोटियां भी खा लेता हूं।
अब नहीं खलता खाने में सब्जी का न होना।
मां अब मैंने देख ली है दुनिया।।

अब कोई नहीं पूछता कहां गए थे।
अब कोई नहीं पूछता क्या कर रहे हो।
अब कोई नहीं पूछता आगे क्या करोगे।
अब्बू अब मैंने देख ली है दुनिया।।

अब मुझसे नहीं लडते मेरे भाई।
अब बहन नहीं करती कोई जिद।
अब दोस्त नहीं ले जाते घूमने के लिए।
अब मैंने देख ली है दुनिया।।
हां अम्मी मैंने देख ली है दुनिया।।
अबरार अहमद

Saturday, May 3, 2008

वो जहर है मगर....

वो जहर है मगर दवा का असर रखता है।
आंखों से अंधा है मगर पारखी नजर रखता है।।

उसके हुनर को कहीं जंग न लग जाए इसलिए।
वह अपने हाथों में एक पोशीदा कसर रखता है।।

उसको नजरबंद करने की बात भी सोच ली कैसे।
वो हवा है हर जगह अपनी रहगुजर रखता है।।

और एक दिन सिमट जाना है सबको दो गज जमीन में।
पड जाए आदत इसलिए वह इतनी ही बसर रखता है।।

वो जहर है मगर दवा का असर रखता है।
आंखों से अंधा है मगर पारखी नजर रखता है।।
अबरार अहमद

Thursday, May 1, 2008

तब जी भर कर रो लेता हूं।

अपनों से दूर होने का दर्द जब सरहदें तोड देता है।
कोई अपना जब अचानक मुहं मोड लेता है।।
रात जब काटे नहीं कटती है।
हर वक्त जब उलझन सी रहती है।।
तब जी भर कर रो लेता हूं।

जब नानी की आवाज कानों में गूंज जाती है।
मां की आंखों में जब पानी की बूंद आती है।।
अब्बू का चेहरा जब याद आता है।
दोस्तों का मजाक जब सताता है।।
तब जी भर कर मैं रो लेता हूं।।
जब किसी के किचन से खुशबू आती है।
जब वो चौराहे और गलियां याद आती हैं।।
तब फिर मैं जी भर कर रो लेता हूं।
अबरार अहमद

Thursday, April 24, 2008

एक नया शिगूफा आया है


महंगाई और अपने घर के कलह के बीच भारतीय जनता पार्टी एक नया शिगूफा लेकर आई है। यह शिगूफा इस प्रकार है कि ठकाठक क्रिकेट में रूपसी चियर्स लीडर, इसे हम अपनी भाषा में कहें तो खिलाडियों में उत्साह पैदा करने के लिए कम कपडों में नाचने वाली नर्तकियां, भारतीय संस्कृति को खाई मे ले जा रही हैं। इसलिए ठकाठक क्रिकेट में इन रूपसी चियर्स लीडरों पर पाबंदी लगाई जानी चाहिए। चलिए यह तो रही भाजपा की बेदना और उनकी मांग। अब अपनी भडास आपको सौंपता हूं। यह मात्र इतना है कि आज के इस ग्लोबल माहौल में जब सारी दुनिया इंटरनेट के माध्यम से एक हो चुकी है और हमारे समाज में पाश्चात्य समाज इस कदर हावी हो गया है कि धोती कुरता पहने वाला भारतीय समाज से नदारद है तो हम किस संस्कृति को बचाने का ढोंग रच रहे हैं। अगली बात यह कि आप घर का दरवाजा बंद कर रात भर नीली पीली पिक्चरें तो देखें या नौटंकी में जमकर फूहडता निकालें लेकिन हजारों की भीड में चार लडकियां किसी टीम का हौसला बढाएं वह आपसे बरदाश्त नहीं हो रहा। हां यह बात सही है कि उन लडकियों के कपडे छोटे हैं। लेकिन आप यह तय कर लें कि मैच देखने जा रहे हैं या पाश्चात्य सभ्यता की नुमाइश। रही बात कम कपडे की तो आजकल फिल्मों में जितने कपडे हिरोइनें पहन रही हैं यह लडकिया उससे ज्यादा ही पहन रही हैं। अब कोई व्यक्ति ने दुकान खोला है तो वह अपना सामान तो बेचेगा ही। आखिर वह लोग स्टेडियम में उन लडकियों से जिस्मफरोशी तो नहीं करा रहे न। आप घर की बात तो सोच नहीं रहे और धर्म और संस्कृति का ठेका ले रहे हैं। लोगों को उन चियर्स लीडर्स पर पाबंदी से पहले अपनी गिरहबान में झांकना चाहिए। हमें पाश्चात्य समाज से खतरा नहीं हमे अपनों से खतरा है। यह बात अब समझनी होगी। क्योंकि जब तक हम नहीं चाहेंगे कोई समाज, सभ्यता या संस्कृति हम पर हावी नहीं हो सकती।
फोटो साभार : MSN
अबरार अहमद

Wednesday, April 23, 2008

ये मुहब्बत की इन्तहां नहीं तो

ये मुहब्बत की इन्तहां नहीं तो और क्या है।
समंदर आज भी प्यासा है किसी की चाहत में।।
शोरगुल में जिंदगी को ढुढते हो ये दोस्त तुम भी।
कभी गौर से देखना इसे खामोशी की आहट में।।
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जी तो करता है कि आज फिर से चूम लूं तेरी पेशानी को।
पर अफसोश आज मैं तुझसे से कहीं छोटा हूं।
वक्त ने छीन लिए सारे कांधे मुझसे।
इसलिए अब दीवारों से लग के रो लेता हूं।।
जी तो करता है कि आज फिर से चूम लूं तेरी पेशानी को।
पर अफसोश...................
अबरार अहमद

Friday, April 18, 2008

बिग बी भी उतरे मैदान में


सभी ब्लागर साथियों अमिताभ बच्चन ने भी ब्लाग की दुनिया में कदम रखा दिया है। इसे ब्लाग का करिश्मा ही कहेंगे। अमिताभ का मानना है कि ब्लाग की दुनिया में कदम रख कर वह अपने प्रशंसकों से जीवंत और मन की बातों को शेयर कर सकते है। निश्चय ही अमिताभ का यह कदम ब्लाग को एक नई दिशा देगा। हालांकि ब्लाग की लोकप्रियता लगतातर बढ रही है। अब वह दिन दूर नहीं जब ब्लाग भी जीवन का एक अहम हिस्सा हो जाएगा। खैर हम अमिताभ को उनकी इस नई पारी की शुभकामनाएं देते हैं और यही उम्मीद करते हैं कि फिल्मों की तरह वह यहां भी अपनी प्रतिभा का झंडा गाडेगें। साथ ही मधुशाला भी ब्लागरों को पीलाएंगे।

यह रहा अमित जी का ब्लाग

Thursday, April 17, 2008

उनकी यादों को चरागों की तरह

उनकी यादों को चरागों की तरह हर शाम जलाए रखा।
कुछ इस तरह से हमने उन्हें अपना बनाए रखा।।

कडकती धूप में मेरा पांव न जल जाए कहीं।
मेरे महबूब ने इसलिए मुझे घंटों बिठाए रखा।।

और यह तुफान तो अब आया है अपने उरोज पर।
उस समंदर से पूछो जिसने इसे बरसों दबाए रखा।।

कुछ न छुपाने कि कसम तुमने तो दी थी मुझको।
मगर एक बात थी जिसे हमने ताउम्र तुमसे छुपाए रखा।।

उनकी यादों को चरागों की तरह हर शाम जलाए रखा।
कुछ इस तरह से हमने उन्हें अपना बनाए रखा।।

Wednesday, April 16, 2008

पलकों में आंसूओं को



पलकों में आंसूओं को छुपाते चले गए।
हम इस तरह से इश्क निभाते चले गए।।

मैं कहते कहते थक गया कि मैं नशे में हूं।
लेकिन वो मुझको और पिलाते चले गए।।

हर जख्म नासूर बन चुका था मगर वो।
सितम दर सितम हम पर ढाते चले गए।।

चलने का तमीज मुझको आ जाए एक बार।
इसलिए नजरों से बार बार वो गिराते चले गए।।
अबरार अहमद

Thursday, April 10, 2008

अधूरे ख्वाब थे मेरे तेरे आने से पहले



अधूरे ख्वाब थे मेरे तेरे आने से पहले।

मचलते जज्बात थे मेरे तेरे आने से पहले।।

हरसू भटकता रहता था गलियों गलियों में।

आवारा नाम था मेरा तेरे आने से पहले।।

तूने जिंदगी जीना सीखा दिया मुझको।।

टूटता साज था मेरा तेरे आने से पहले।।

मुझे संभाल लेगा कोई अब इस बात की तसल्ली है।

कदम लडखडाते थे मेरे तेरे आने से पहले।।

तेरे आने से हो गया जर्रा जर्रा रौशन।

अंधेरे साथ थे मेरे तेरे आने से पहले।।

अधूरे ख्वाब थे मेरे तेरे आने से पहले।

मचलते जज्बात थे मेरे तेरे आने से पहले।।

Sunday, April 6, 2008

इस बदलते दौर में


इस बदलते दौर में इतना तो ख्याल रखा है।
हया के चादर में रिश्तों को संभाल रखा है।।

तलाशते तलाशते जिनको इक उम्र गुजर गई अपनी।
उस मंजिल को तमाम रास्तों ने संभाल रखा है।।

मुकददर को कोसने वालों सुन लो।
अपने हाथों में तुमने वो मलाल रखा है।।

इस सूरत में ढूढते हो हमारे सीरत की तस्वीर क्यूं।
वक्त ने दे के सबकुछ हमें अब भी फटेहाल रखा है।।

हो तो जरा मसजिद तक हो आउं मैं भी।
इक मुददत से इस दिल गुनाहों को पाल रखा है।।
अबरार अहमद

Wednesday, April 2, 2008

अमीषा मैडम को चाहिए जुर्माना


अदाकारा अमीषा पटेल ने कई निजी मोबाइल कंपनियों से दो करोड का हर्जाना मांगा है। यह हर्जाना इन कंपनियों की ओर से रिंगटोन बेचने के लिए अखबारों में दिए गए एड के साथ उनका फोटो छापने के एवज में मांगा गया है। साथ ही अमीषा ने धमकी दी है कि अगर उन्हें हर्जाना नहीं मिला तो वह अदालत जाएंगी। इस संबंध में इन मोबाइल कंपनियों को नोटिस भेज दिया गया है। खैर मैडम के पास अभी फिलहाल कोई काम तो है नहीं। इसलिए खरचा चलाने के लिए रुपये तो चाहिए ही। यह माया नगरी है भईया। लगे रहो। फोटो के पैसे भी वसूल लो।

Monday, March 31, 2008

राखी सावंत बनीं इस बार की पहली अप्रैल फूल


इस अप्रैल की पहली ब्रेकिंग न्यूज। राखी सावंत को निर्देशक राकेश रोशन ने इस बार के अप्रैल का पहला फूल बना डाला। ठीक पहली अप्रैल से एक दिन पहले राकेश रोशन ने राखी को चौंकाते हुए अपनी अगली फिल्म क्रेजी फोर से राखी का तेजी से पापूलर हो रहा आइटम सांग देखता है क्या हटा दिया। अब राखी देश की मीडिया के सामने अपना रोना रो रही हैं। साथ ही हमारी हाईटेक मीडिया को एक और मसाला मिल गया है। अब देखिए यह कहां कहां लगाया जाता है। लेकिन यह बात तो तय हो गई कि राकेश रोशन उडती चिडिया के पर कतरना बाखूबी जानते हैं। वह भी मौका और दस्तूर देखकर। आखिर वह पुराने खिलाडी जो ठहरे।

Monday, March 24, 2008

हंसती आंखों में भी


हंसती आंखों में भी गम पलते हैं पर कौन जाए इतनी गहराई में।
अश्कों से ही समंदर भर जाएंगे बैठो तो जरा तन्हाई में।।

जिंदगी चार दिन की है इसे हंस कर जी लो।
क्या रखा है आखिर जमीन ओ जात की लडाई में।।

तुमसे मिलने की चाहत हमे कहां कहां न ले गई।
वफा का हर रंग देख लिया हमने तेरी जुदाई में।।

जिस सुकून के लिए भटकता रहा दर दर अबरार।
या खुदा वो छुप कर बैठी रही कहीं तेरी खुदाई में।।

Friday, March 21, 2008

सभी देशवासियों को होली मुबारक


सभी जनों को होली की बहुत बहुत बधाईयां। जमकर रंग खेलें और सबको गले लगाएं। यह पर्व खुशी और भाईचारे का है। इसलिए सारे गिले शिकवे दूर कर एक दूसरे को रंग लगाएं, बडों से उनका आशिर्वाद लें और छोटों को प्यार दें।एक बार फिर से सभी भाइयों को होली की बधाई।

Thursday, March 20, 2008

होली भी मेड इन चाइना


होली का सुरूर हम सब पर छाया है। हर ओर रंग बरस रहे हैं। बाजार रंगीन हो गए हैं और हमारी सोच भी। सब कुछ अपने हिसाब से चल रहा है। जेबें भी हमारी गरम हैं। कुल मिलाकर टोटल मस्ती है। खैर मुददे की बात पर आते हैं। हमारे एक मित्र हैं। होली पर घर जा रहे थे, सो भांजे के लिए पिचकारी खरीदना चाहते थे। दोनों जने बाजार गए। रंग और पिचकारी की दुकान दिखी तो पहुंच गए वहां। दुकानदार ने कुछ पिचकारियां दुकान के आगे टांग रखी थीं और कुछ एक गत्ते में भरी पडी थीं। मैने गत्ते से कुछ पिचकारियां निकालीं और देखने लगा। आश्चर्य तब हुआ जब पैकिंग के उपर मेड इन चाइना पढा। मैंने दुकानदार से पूछा आपके यहां क्या सारी पिचकारियां चाइना मेड हैं। उसने हां में जवाब दिया। साथ में दलील भी दी कि हमारे यहां तो केवल वही एक घीसी पिटी पंप वाली पिचकारी बनती है, जबकि चीन की बनी पिचकारियों पर हजारों वैराइटियां मौजूद हैं। साथ ही इनकी कीमत भी काफी कम है। एक और बात यह कि इन पिचकारियों को बच्चे होली के बाद भी खिलौनों के तौर पर खेल सकते हैं। इसके अलावा चाइना मेड रंग और चाइना के गुब्बारे इस बार हमारे बाजारों में होली खेल रहे हैं। इससे पहले दीपावली पर चाइना मेड लाइट झालर और भगवान गणेश से लेकर माता लक्ष्मी तक चीन हमे मुहैया करा रहा है। यही नहीं देश की साइकिल इंडस्ट्री भी चीन से दुखी है। देश में दिनोंदिन स्टील की कीमतें बढती जा रही हैं उधर चीन सस्ती साइकिलें देश में सप्लाई कर रहा है।वह दिन दूर नहीं जब आपके बाजारों से मेड इन इंडिया लापता होगा। हर चीज मिलेगी मगर मेड इन चाइना की। हमारे उद्योग दम तोड चुके होंगे तब चीन हमारी कमर तोडेगा। फिर हम कुछ नहीं कर पाएंगे। अभी तो थोडे सस्ते के चक्कर में हम चीन को अपने घर की चौकठ दिखा रहे हैं। वह वक्त भी आएगा जब चीन हमारे बेडरूम में होगा और हम घर के बाहर। सोचने की जरूरत है।

सरकार की भूमिका पर सवाल

इस पूरे मसले पर सरकार की भूमिका पर सवाल खडा होता है। जिस पैमाने पर चाइना के माल हमारे देश के बाजारों में बिक रह हैं उससे एक बात तो तय है कि यह माल चीन से तस्करी के माध्यम से नहीं आ रहा। अगर तस्करी के माध्यम से नहीं आ रही तो सरकार इसकी मंजूरी दे रही है और बाकायदा कस्टम डयूटी लेकर चाइना मेड सामानों को इस देश में बेचने में मदद कर रही है। इससे साफ है कि सरकार देश के उद्योगों पर ताला लगवाने में अहम भूमिका अदा कर रही है। लोगों को यह बात समझनी होगी। नहीं तो हम अपने ही देश में पराए हो जाएंगे। अपने ही बाजार से बेदखल भी। फिर अरूणांचल भी हमारा नहीं रहेगा और दिल्ली भी हमसे जाएगी। सोचने की जरूरत है।

आप सब इस मुददे पर अपनी राय दें।

Monday, March 17, 2008


क्या वाकई जनाब सो रहे हैं। मगर इनका शरीर कहाँ है। बूझो तो जानें।

Wednesday, March 12, 2008

अब अंधेरे देने लगे हैं सुकून

अब अंधेरे देने लगे हैं सुकून मुझको।

न जाने कब दूर मुझसे यह रोशनी होगी।।

तमाम लोगों के लिए तमाम किरदार जीया।

क्या अपने लिए भी कोई जिंदगी होगी।।

या खुदा अब लोग कहने लगे मुझे काफिर।

अब इससे बढ कर क्या तेरी बंदगी होगी।।

अपने पसीने से सींचा है इस जमीं को हमने।

अब इस सहरा में भी पूरी नमी होगी।।

Tuesday, March 11, 2008

वाकई चक दिया इंडिया

भारतीय हाकी का सबसे काला दिन
हाकी में भारत ने किया शर्मशार
शर्मशार हुई भारतीय हाकी
हाय रे हाकी

देश के तमाम बडे अखबारों की सुबह आज इस हेडलाइंस के साथ हुई। बडे बडे हेडिंग और इतनी थू थू आज पहली बार हाकी को लेकर न्यूज पेपरों से लेकर न्यूज चैनलों तक में देखने को मिली। हर कोई अचरज के साथ यही कह रहा है कि देश का राष्ट्रीय खेल गर्क में चला गया। अस्सी साल के सुनहरे इतिहास में हम पहली बार इतने शर्मशार हुए। हाकी महासंघ के प्रमुख केपीएस गिल को बिना देरी के इस्तीफा दे देना चाहिए। मगर कोई भी जिम्मेदार नागरिक यह सोचने की जहमत नहीं उठा रहा कि आखिर इस शर्मनाक हालत के लिए क्या वह जिम्मेदार नहीं। भारतीय समाज जिम्मेदार नहीं। पूंजीवाद जिम्मेदार नहीं। क्रिकेट के प्रति दिवानगी जिम्मेदार नहीं। गरमागरम खाबरों को बेचने वाला मीडिया जिम्मेदार नहीं।आज तमाम अखबारों में हाकी की हार को जितनी तरजीह दी गई है मुझे नहीं लगता हाकी की जीत पर कभी इतनी जगह दी गई थी। सच तो यह है कि चक दे इंडिया का नारा क्रिकेट के लिए हम दे तो सकते हैं लेकिन हाकी के लिए बोल भी नहीं सकते। हमने क्रिकेट को ही अपना नेशनल गेम मान लिया है। यह बात और है कि हम उसे संविधान में स्थान नहीं दे सकते। यही हाल देश के चौथे स्तंभ मीडिया का भी है। मीडिया ने कभी हाकी को इतनी तरजीह ही नहीं दी कि देश का यह खेल देश की नई नस्ल की नब्ज तक पहुंच सके। अगर आप ने हाकी को अपना देश खेल माना ही नहीं तो केपीएस गिल से इस्तीफा मांगने का मतलब समझ से परे है। आज हाकी खिलाडी भी समझ गए हैं कि खेलने से कुछ मिलने वाला तो है नहीं। तो जान देने से फायदा क्या। आप सब को याद होगा पीछले कुछ माह पहले जब भारतीय हाकी टीम गोल्ड मेडल जीतकर जब स्वदेश लौटी तो इन हाकी खिलाडियों को न के बराबर इनाम या सम्मान दिया गया। इसी बीच धोनी के धूरंधरों ने 20 ट्वेंटी का क्रिकेट विश्व कप जीत लिया। यह टीम देश लौटी तो अभूतपूर्व स्वागत के साथ मुंबई में टीम का जबरदस्त सम्मान किया गया। यह बात हाकी खिलाडियों को बुरी लगी तो उन्होंने अपना रोष जताया और सम्मान की मांग की। तब जाकर सरकारें जागीं और उनको भी कुछ दे दिया। अब जिस देश में क्रिकेट को बिन मांगे सब कुछ मिल रहा हो और देश के राष्ट्रीय खेल के जवानों को अपना सम्मान मांगना पड रहा हो उस देश में यह दिन तो आना ही था। अब इस पर अफसोस करने से क्या फायदा। हाकी को आप और हम बचा नहीं सकते। क्योंकि इसमें कोई बडा पूंजीपती अपना हाथ नहीं लगाएगा, इसकी फ्रेंचाइजी नहीं लेगा। कोई इसे स्पांसर नहीं करेगा और न ही कोई मीडिया इसकी खबर देगा और न ही हम इसे अपना राष्ट्रीय खेल समझेंगे।
वाकई में चक दिया इंडिया
अबरार अहमद

Wednesday, March 5, 2008

क्या यह नौटंकी है

वक्त बदल रहा है और लोग भी। अखबार बदल रहे हैं और न्यूज चैनल भी। यह बदलाव कितना सही है और कितना गलत यह तो वक्त बताएगा। लेकिन संकेत कुछ ठीक नहीं। खबर को दिलचस्प बनाने की जो नई इबारत आज के पत्रकार लिख रहे हैं या दिखा रहे हैं वह पत्रकारिता को कहां ले जाएगी कुछ नहीं कहा जा सकता। अभी हाल के ताजा उदाहरणों से तो यही लगता है।अभी कुछ दिनों पहले जब देश के वित्त मंत्री ने आम बजट पेश किया तो एक न्यूज चैनल के कुछ एंकरों ने गांव और देहात के लोगों को बजट में क्या मिला यह बताने के लिए गवंइया और शहरी जनता का वेश और बोली धारण कर पूरी एक नौटंकी की तरह बजट को लोगों तक पहुंचाया। अभी आज की ही बात है उसी चैनल पर एक एंकर भारतीय टीम के कपडे पहने हुए नजर आ रहा था। उसके हाथ में बल्ला था और पैरों पर पैड बंधा था साथ ही वह गलब्स भी पहने हुए था। एंकरिंग का यह अंदाज कुछ अलग था इसलिए स्वभाविक रूप से मेरी नजर उस ओर दौड गई। देखा तो जनाब बल्ले को हिला हिलाकर भारतीय टीम की आस्ट्रेलिया में हुई जीत का बखान कर रहे थे। खैर यह तो रहा मुददा। अब सवाल यह उठता है कि कल क्या कोई हत्यारा पांच लोगों का खून कर देगा तो क्या न्यूज चैनल उस पूरी वारदात की नौटंकी अपने इस एंकर से कराएंगे। मेरे हिसाब से अगर जनता को बजट और क्रिकेट टीम की जीत वास्तविक जानकारी देने के लिए अगर कोई चैनल ऐसा कर रहा है तो वह अपने व्यूवर को हत्या की इस वारदात की वास्तविक जानकारी देने के लिए अपने एंकर से उस पूरे घटना की नौटंकी भी करवाएगा। इसी तरह रेप और अन्य घटनाओं की जानकारी पूरे वास्तविकता के साथ दी जाएगी। तब हमारे समाज पर इसका क्या असर होगा। सवाल यह भी है कि क्या देश की इलेक्ट्रानिक मीडिया नौटंकी मीडिया की तरफ नहीं जा रही? इसका नतीजा क्या होगा। इसपर निश्चय ही सोचने की जरूरत है। हालांकि आज भी कई न्यूज चैनल ऐसे हैं जो अपना स्तर बनाए हुए हैं।
अबरार अहमद

वह पथिक है

है घनघोर अंधेरा मगर
वह पथिक चला जा रहा है।
न कोई आस है न कोई पास है।
न मंजिल के मिलने की आस है।।
है घनघोर अंधेरा मगर
वह पथिक चला जा रहा है।।

पसीने से लतपथ है काया
भूख ने छीन लिया है अपना साया।
कर्म वो अपना किए जा रहा है।
वह पथिक है चला जा रहा है।।

जो भी मिलता है इस रास्ते में।
वो करता है उडने की बातें।
और दिखाता है सपनों की दुनिया।
पर हकीकत तो इससे परे है।
बस रास्ता ही संग चला जा रहा है।
कर्म वह अपना किए जा रहा है
वह पथिक है इसलिए चला जा रहा है।
वह पथिक है इसलिए........
अबरार अहमद

Tuesday, March 4, 2008

मार लिया मैदान

आस्ट्रेलिया को उसी की जमीन पर हरा कर हमने मार लिया मैदान। ट्राफी अपने खाते में। भज्जी ने मैच जीतने के बाद जो भंगडा डाला वह निश्चय ही जीत का जश्न और कंगारूओं का घमंड तोडने वाला था।
जीत का जश्न मनाइये।
अबरार अहमद

Sunday, March 2, 2008

सोचता हूं तो

सोचता हूं तो अजीब लगता है।
वो दूर है पर करीब लगता है।।

सुकुनोचैन से जीता है वो आदमी लेकिन
शक्ल से हमेशा गरीब लगता है।।

उम्र भर जिसको इत्तफाक समझा हमने।
वो कायदे से अब नसीब लगता है।।

फासला रख के जिससे चलते रहे हर कदम।
आज वो ही अपना रकीब लगता है।।

जिंदगी भर जिसे समझने की कोशिश की।
अपने जेहन को वो ही अदीब लगता है।

अबरार अहमद

Tuesday, February 26, 2008

ये वो शहर है जो

जी भर देख लो तो आंखों में उतर जाता है।
ये वो शहर है जो हर रोज उजड जाता है.

हर रोज बिकती हैं यहां कई जिंदा लाशें।
पर अफसोस हर कोई तमाशबीन बन देखता रह जाता है.

अपना खून गिरा तो खून दूसरे का गिरा तो पानी।
या खुदा क्या ऐसे ही इंसां का जमीर मर जाता है.

ख्वाब न देख ऐसे जो आंखों में न समाएं।
हकीकत का आइना हर रंग उडा देता है.

उस चांद को देखा है कभी पूरी अकीदत से।
किसी रोज वह भी एक चलनी में उतर जाता है.

Sunday, February 24, 2008

कोशिश

मैं एक कोशिश कर रहा हूँ सरहदें पाटने की।
मैं एक कोशिश कर रहा हूँ दूरियां मिटाने की।
मैं एक कोशिश कर रहा हूँ सबको अपना बनाने की।
मैं एक कोशिश कर रहा हूँ एक खुला आस्मान बनाने की।
मुझे मत रोको, मेरे जज्बातों, मेरे ख्यालों, मेरे ख्वाबों को उड़ने दो।
मैं एक कोशिश कर रहा हूँ एक नयी दुनिया बनाने की।
मैं कोई ग़ैर नही तुम्हारा अपना ही हूँ।
बस वक्त ने हमारे बीच यह फासला बो दिया है।
मैं एक कोशिश कर रहा हूँ उस फासले को काटने की।
मैं एक कोशिश कर रहा हूँ ..........बस एक कोशिश

है कोई तुझसे बड़ा

है कोई तुझसे बड़ा, तेरे अस्तित्त्व से, तेरे आधार से।
फिर क्यों डरता है, क्यों तिल-तिल कर मरता है।
तू आकाश है पहचान खुद को।
तेरा कोई अंत नही, तू अनंत है, है कोई जो तुझे सीमाओं में बांध सके।
फिर क्यों डरता है, क्यों तिल-तिल कर मरता है।
तू धरा है, पहचान खुद को।
तेरी सहनशीलता, तेरी सुन्दरता का कोई जोड़ नही।
फिर क्यों डरता है, क्यों तिल-तिल कर मरता है।
है कोई तुझसे बड़ा, तेरे अस्तित्त्व से, तेरे आधार से।
तू अग्नि है, अपनी पहचान कर।
तेरा तेज, तेरा ताप, तेरी ऊर्जा जीवन का स्रोत है।
फिर क्यों डरता है, क्यों तिल-तिल कर मरता है।
तू जल है, खुद को पहचान।
तेरी शीतलता, तेरी निर्मलता, तेरी पवित्रता किसी और में है क्या।
फिर क्यों डरता है, क्यों तिल-तिल कर मरता है।
तू वायु है, अपनी पहचान कर।
तेरा वेग, तेरी शक्ति, तेरा जीवन देने का अंदाज किसी और में है क्या।
फिर क्यों डरता है, क्यों तिल-तिल कर मरता है।
है कोई तुझसे बड़ा, तेरे अस्तित्त्व से, तेरे आधार से।
अबरार अहमद, दैनिक भास्कर, लुधियाना

सोचा न था

वक्त इस मोड़ तक ले आएगा सोचा न था।
एक दिन अपनों से ही सामना हो जाएगा सोचा न था।
जिंदगी बड़ा बेतरतीब जिया करते थे।
इसे संभल-संभल के भी जीना पड़ जायेगा सोचा न था।
जिससे मिलते थे उसे अपना मान लेते थे।
कोई इस तरह पीठ में छुरा भोंक जायेगा सोचा न था।
वक्त इस मोड़ तक ले आएगा सोचा न था।
एक दिन अपनों से ही सामना हो जाएगा सोचा न था।
बड़ा नाज था मुझे उसकी वफ़ा पर।
वो इस तरह बीच रस्ते छोड जायेगा सोचा न था।
कहते हैं की वक्त हर जख्म भर ही देता है।
लेकिन वक्त येसा जख्म भी दे जायेगा सोचा न था।
वक्त इस मोड़ तक ले आएगा सोचा न था।
एक दिन अपनों से ही सामना हो जाएगा सोचा न था।
अबरार अहमद, दैनिक भास्कर, लुधियाना

हर फासला तेरा

हर फासला तेरा हमे दूर होने का एहसास करता रहा।
पर हम भी कम नही थे एक मुसाफिर कि तरह चलते रहे।

किस बात से खफा थे वो हमसे इस बात को तो छोडिये।
कभी एहसास तक न होने दिया, हमेशा खुश होकर मिलते रहे।

कितने सपने संजो लिए हमने देखते-देखते।
वो महज रेत का घरौंदा था, जिसे हम आशियाना समझते रहे।

किसको सुनाये अपनी नासमझी का किस्सा अबरार।
मंजिल साथ खड़ी थी और हम रास्ता तलाशते रहे।

अबरार अहमद, दैनिक भास्कर, लुधियाना

गांड मार लो पत्रकारिता की

शीर्षक से कई लोगों को आपत्ति हो सकती है। पर कुछ लोगों ने वाकई हद कर दी है। देश का चौथा स्तम्भ कहलाने वाले इस पेशे को मटियामेट कर इसे खम्भा बनाने की पुरी कोशिश की जा रही है। हो सकता है की जो देश के तथाकथित बड़े पत्रकार हैं वह एक नई पत्रकारिता गढ़ रहे हों। पर यह वाकई इस पेशे से दुष्कर्म जैसा है। यहाँ मैं प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक दोनों पत्रकारिता की बात कर रहा हूँ। इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने तो ब्रेकिंग न्यूज़ को अपने घर का दामाद ही बना लिया है। अब आज की ही बात ले लीजिये। राखी सावंत ने अपने प्रेमी को थप्पड़ मारा तो यह देश के सबसे तेज न्यूज़ चैनल की ब्रेकिंग न्यूज़ बन गई। इस चैनल ने इस पूरे ड्रामे पर एक विशेष कार्यकर्म तक दिखा डाला। जबकि यह सबको मालूम है की यह पुरा ड्रामा केवल और केवल पब्लिसिटी स्टंट था। जिस प्रकार वो सारा ड्रामा दिखाया गया निश्चत रूप से राखी ने उसके लिए कई दिन तक प्रेक्टिस की होगी अब ये उन महान लोगो को कौन बताये। ये हाईटेक पत्रकार तो बस मॉल बेचने मी जुटे हैं। यही करना है तो मेरी राय है की न्यूज़ चैनल बंद कर कोई ड्रामा चैनल खोल लें। लेकिन इस पेशे को स्वरूप को बिगाड़े नहीं। कुछ लोगों का तर्क हो सकता है की आख़िर २४ घंटे तक न्यूज़ ही तो नही दिखाया जा सकता ना। हाँ ये सच है लेकिन इसका विकल्प वो चीजें हैं जीना ख़बर से कोई रिश्ता ही नही। क्या सांप, भूत, ड्रामा दिखाना पत्रकारिता है।
अब बात करते हैं प्रिंट मीडिया की। लोकलीकरण के नाम पर अख़बारों में जो गंदगी भरी जा रही है वह वाकई में शर्मनाक है। रास्ट्रीय स्तर के अख़बार जब येसा उदाहरण पेश करेंगे तो यह पत्रकारिता के गांड मारने जैसी ही बात है। अख़बार का पहला पन्ना उस अख़बार की सबसे सजी और काबिल लोगों के हाथों बनाईं जाती है।जब पहले पन्ने पर ही नाली, कुदे और समस्याओं का अम्बार रहेगा और वह भी लोकल तो आप काहे के रास्ट्रीय अख़बार। और आप किसे बेवकूफ बना रहे हैं। अपने आप को। मेरे कहने का मतलब बस इतना है की सब कुछ कीजिये मगर पत्रकारिता को पत्रकारिता रहने दीजिये। माना की वक्त बदल रहा है चीजें बदल रही हैं लेकिन ख़ुद को बदलिए ना की पेशे के स्वरूप को।
पत्रकार सथिओं एक मुहीम चलाओ और पत्रकारिता को उसका खोया स्वरूप वापस दिलाओ।
अबरार अहमद

Posted by abrar ahmad



7 comments:
नीरज गोस्वामी said...
सच्ची और खरी बात लिखने के लिए बधाई...
नीरज

14/2/08 9:11 PM
डा०रूपेश श्रीवास्तव said...
अबरार भाई, बिल्कुल सही शीर्षक है जिन्हे आपत्ति होगी वे बस चौथे स्तंभ को सुस्सू करके गीला करने वाले ही होंगे ,इसे मज़बूत करना उनके बस की बात नहीं है ।

14/2/08 9:39 PM
Tiger said...
बिल्कुल सही बात है। अब आप इस फोटो मे ही देखिये क्या क्या ब्रेकिंग न्यूज़ आती है।

http://img98.imageshack.us/img98/5986/image001fb1.jpg

15/2/08 12:27 AM
आशीष said...
जनाब शुरुआत कौन और कहां से करेगा, दिक्‍कत यही है

15/2/08 11:15 AM
संजय तिवारी said...
मीडिया सेंटर में आपसबका स्वागत है.
बस एक ईमेल करिए-visfot@visfot.com

15/2/08 11:46 AM
PRAJAPATI said...
lage raho bhaiji

15/2/08 4:36 PM
दिनेशराय द्विवेदी said...
और किसी को हो न हो आप को खुद अपने शीर्षक पर आपत्ति थी। आलेख के पहली ही पंक्ति में आप ने खुद इसे स्वीकार किया है। आप की बात बहुत वजनी है। लेकिन इसे कहने के लिये भदेस होना क्या जरुरी था। हम चाहते हैं पत्रकारिता अपना दायित्व निभाए, उसका स्तर सुधरे। भाषा भी उसका एक भाग है। आप खूब लिखें, हिन्दी में विरोध के शब्दों की कमी नहीं। मगर भाषा का भी ख्याल करें। मेरी बात बुरी लगे तो टिप्पणी को मोडरेशन में हटा दें।

यूनान, मिस्र, रुमा सब मिट गए......

यूनान, मिस्र, रुमा सब मिट गए जहाँ से।
बाक़ी मगर है अब तक नामों निशाँ हमारा।
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तान........

तब मैं काफी छोटा था जब दादा कि जुबान से डॉक्टर इकबाल कि यह नज्म सुना करता था। मेरे दादा कोई स्वतंत्रता सेनानी नही थे मगर उनको इस बात का गर्व था कि वह सारी हस्तियाँ मिट गईं जिनको खुद पर नाज था मगर हम फिर भी नही टूटे जबकि हमसे पाकिस्तान और बंगलादेश जैसे राष्ट्र निकल गए। आज वह होते तो निश्चित तौर पर परेशान हो जाते। आज देश के हालत बदल रहे हैं। शायद हम अपनी आने वाली पीढियों को डॉक्टर इकबाल कि उक्त दो लाइनों का मतलब न समझा पाएं। खुदा येसा दिन न दिखाए। जो चिंगारी कल तक देश कि आर्थिक राजधानी मुम्बई मी थी वह आग कि शक्ल में देल्ही पहुंच चुकी है। ओछी राजनीती कि यह चाल अब कम मानसिकता वाले संवैधानिक गलियारे तक आ गई है। अगर इस पर जल्द ही लगाम न लगाया गया तो यह भयानक रूप ले सकती है। और संभव है कि ab यह कोलकाता, अहमदाबाद, सूरत और उसके बाद लुधियाना तक पहुंच जाये।
यह मुद्दा कोई नया नही खास तुर पर मुम्बई और असाम के लिए। असम में भी बिहार के लोगों पर हमले हो चुके हैं। और हम इससे निपटते आये हैं। लेकिन कहीं न कहीं हम वो जमीन तैयार कर रहे हैं जो हमे अलग थलग कर सकता है। हमारा भी हसर रशिया कि तरह हो सकता है। हमारे सियासतदान भले ही इस बात को हलके में ले रहे हों मगर पाकिस्तान और चीन के हाथ हम एक नई सोच दे रहे हैं।
राज thakre जैसे नेता कि बात केवल मुम्बई के कुछ लोगों तक ही थी मगर देल्ही के up rajypal tejindar pal का यह कहना कि uttar bhart के लोग niyamon का palan नही करते एक नई बहस shuru कर सकता है और यह bahs jarurii bhii है आख़िर यह तय हो जाना चाहिए कि हम bhartiy हैं या बिहारी या marathi.
Abrar ahmad

Posted by abrar ahmad



1 comments:
डा०रूपेश श्रीवास्तव said...
भाईजान ये तय कौन करेगा कि हम औन हैं भारतीय या फिर मौके दर मौके अपनी पहचान नेताओं के कहने से बदल देने वाले लोग जो कभी बिहारी या मराठी बन जाते हैं और कभी हिन्दू और मुसलमान.......
हमें अब तो जागना होगा मेरे भाई कि राजनेता हमें इन्हीं कुचक्रों में उलझाए रख कर देश को डकारे जा रहे हैं ।

नई जेनरेशन का अखबार- part 1

नई जेनरेशन का अखबार- part 1
सर्व पत्रकार साथियों को सूचित किया जाता है कि इस लेख का किसी जीवित या मृत अखबार से कोई लेना देना नही है, अगर वर्तमान या भविष्य में किसी अखबार से इसके कुछ तथ्य मिलते हैं तो यह मात्र संयोग ही होगा।
अबरार अहमद
सीन एक
सेल्स मैन एक घर का दरवाजा खड्काता है। कोई दरवाजा खोलता है और जैसे ही सेल्स मैन कि टाई दिखती है एक तेज आवाज आती है। नही चाहिए कुछ भी। चले आते हैं सुबह-सुबह मुह उठाये। सेल्स मैन चेहरे पर दुखती हँसी लाते हुए विनती करता है।
मैडम हमारा अखबार अखबारी दुनिया का अबतक का सबसे बड़ा आफर लेकर आया है। येसा आफर किसी अख़बार के पास नही। महिला असंतुस्ट भाव से कहती है अब दरवाजा खोल दिया है तो बक डालो। सेल्स मैन खुश होकर बताता है।
मैडम हमारे अखबार कि एक साल कि बुकिग कराइये और हर महीने सारंगी होटल में आपका और आपके पूरे परिवार का खाना मुफ्त और साल maen दो बार डिस्को जाने का कूपन।
महिला चलो ठीक है पर बुकिंग कितने कि है. कुछ nahi madam bas das jodi purane kapde ya panch jodi purane magar chalne ki halat me hone vale jute aapko dene honge।
mahila boli abhi kal hi ek akhbar vala aaya tha vah to 8 jodi kapdo me hi ek ssal ki buking kar rahaa tha. 8 me dena hai to buk kar do varna rahne do. selsman chalo madam 9 kapde de do. hamara akhbar hafte me 7to din rngin magjin deta hai sath mae dhero eenam neekalta hai. mahila kahti hai nahi mai to 8 hi dungi. ab to kabadi vala bhi akhbaar nahi leta kahta hai maine khud das akhbar bandh rakha hai. usi se itna kabad ho jata hai ki apni roji riti chal jati hai.
selsman chalo madam ab aapne kasam hi kha li hai to de do 8 jodi me hi buk kar dete hain. par yah baat kisi aur se mat bataayiyega.
मेरा मकसद मजाक उडाना नही जागरूक करना है। आप सब को यह बताना है कि हम पत्रकारिता को कहाँ ले जा रहे हैं। इसे कैसे बच्या जा सकता है। फाँट कि दिकत कि वजह से कुछ अंस अंग्रेजी में लिख गए है। माफ़ कीजियेगा।

एक अदद खूंटा चाहिए

जब हम दिमाग रूपी इतनी बडी भैंस लेकर घूम रहे हैं तो उसे बांधने के लिए एक अदद खूंटे की जरूरत तो पडेगी ही.
हम भारत वासी टांग अडाने में तो माहिर ही हैं और हम बराबर फटा हुआ ढुढते रहते हैं ताकि उसमें अपनी टांग फंसाकर मजा लेते रहें.विवाद से तो हमारा गहरा लगाव है.इसके बिना तो हम रह ही नहीं सकते. जरूरत है तो बस चिंगारी उडाने की बाकी आग कैसे लगानी है उसकी चिंता आप छोड दीजिए. अब जनता को कौन समझाए कि अब अकबर कया कब्र से यह बताने आएंगे कि उनकी बीवी का नाम जोधा था या हीरा कुमारी. अभी जितने लोग जोधा के पीछे पडे हैं उनमें से 99 फीसदी लोगों को अपने परदादा, परदादी के नाम तक याद नहीं होंगे. मैं कहता हूं अकबर की बीवी का नाम जोधा था या जो भी था आपकी सेहत कहां से घट गई. लेकिन नहीं हम जबतक अकबर की बीवी का नाम नहीं पता लगाएंगे हमारी रोटी हजम कैसे होगी. और सबसे बडी बात कि मजा कैसे आएगा.
जोधा अकबर के मामले से पहले राज ठाकरे के मामले का विवाद हमारे सामने था. उससे पहले परमाणु करार को हम घसीट रहे थे. उससे पहले मंगल पांडे, भगत सिंह और न जाने कितने विवादों में हम अपनी टांग अडा चुके हैं. और तो और कुछ पारटियों ने तो बाकायदा इसके लिए अपनी छोटी शाखाएं बना रखी हैं. जो इन मुददों को हाइप देते हैं और इनके पास भी पुतलों के थोक भंडार होता है. बस उनपर नए विवाद का नाम चिपकाना होता है. चार लोग चौराहे पर जमा हुए और दे दिया विवाद को तूल. दूर कहां जाते हैं अभी कुछ दिन पहले ही भंडास पर एक मोहतरमा ने फटा टांग दिया तो लगे सभी भडासी उसमें अपनी टांग अडाने और खामखाह मामले को तूल देने. खैर हम तो ठहरे आदमी और वह भी देशी हिंदुसतानी और हम अपनी फितरत रहे छोडने से. अब जोधा अकबर का मामला भी पुराना पडता जा रहा है लिहाजा देश का एक नए विवाद की तलाश है. अब देखिए यह विवाद आपको और हमको कब मिलता है.
अबरार अहमद