Saturday, June 28, 2008

मुझे मत मारो,मुझे जीने दो

आज सुबह जैसे ही टीवी चालू किया एक ऐसी खबर सामने आई जिसने सोचने पर मजबूर कर दिया। और मैं तो यह कहूंगा कि इस खबर पर हर मां बाप को सोचना चाहिए कि आखिर हम अपने बच्चे को क्या दे रहे हैं अपनी अगली पीढी को कहां ले जा रहे है। हम क्यूं उनसे उनका बचपन छीनकर उन्हें समय से पहले बडा बना रहे हैं और इसके लिए यह हक हमें किसने दिया। हां आपको वह खबर तो बता दूं। खबर थी कि कोलकाता के एक रियालिटी शो के दौरान जजों ने एक बच्ची को कुछ इस तरह बेइज्जत किया कि वह कोमा में चली गई। शिंजनी नाम की यह लडकी अब न बोल पा रही है न सुन पा रही है। अब सवाल यह उठ रहा है कि क्या हम अपनी संतानों को उस मुहाने पर लाकर नहीं खडा कर रहे या उस दिशा में नहीं भेज रहे जहां वह अपना मानसिक और शारीरिक संतुलन खो सकते हैं। क्या हम उनके उपर समय से पहले वह बोझ नहीं डाल रहे जो एक तय सीमा के बाद पडना चाहिए। क्या बच्चों को प्रतिस्पर्धा की बेदी पर चढाना सही है। एक वक्त था जब मां बाप अपने बच्चों को पांच साल की उम्र तक स्कूल नहीं भेजते थे। पांच साल की उम्र तक बच्चा अपने बचपने को जीता था दोस्तों के साथ खेलता था और मस्ती करता था और जब पांच साल की उम्र में उसका स्कूल में दाखिला होता था तो नर्सरी क्लास उस बच्चे को मिलती थी। नर्सरी के बाद वह पहली जमात में पहुंचता था। मगर अब हालात बदल चुके हैं अब तो दो साल के बच्चे स्कूल जाने लगे हैं। स्कूलों ने भी यूकेजी एलकेजी तो इस तरह की तमाम क्लासें इजाद कर दी हैं जो इन बच्चों के बचपन को निपटा रही है। हां इस व्यवस्था में मां बाप की गैर जिम्मेदारी पूरी तरह से झलकती है। मां बाप भी बच्चों को पालने से डरते हैं या उनके पास इतना समय नहीं बचा कि वह अपने बच्चे के बचपने को सहेज सकें। यह तो सब जानते हैं कि सबकी आईक्यू एक बराबर नहीं होती और हो भी नहीं सकती क्योंकि उपर वाले ने कुछ भी एक जैसा नहीं बनाया और न बनाएगा। फिर हम क्यों अपने बच्चों को एक जैसा बनाने पर तूले हैं। हम क्यूं चाहते हैं कि हमारा बच्चा आलराउंडर निकले। वह गवइया भी बने, नाचे भी और तबला भी बजाए। साथ ही पढे भी। हम क्यों उसे एक ऐसे मंच पर ढकेल देते हैं जहां उसे उस उम्र में वह मानसिक और शारीरिक तनाव झेलना पडता है जो उसके मौजूदा मानिसक और शारीरिक हिसाब से बहुत बडी है। मैं उन सभी मां बाप से अपील करता हूं कि इस मामले पर एक बार गौर से सोचे और अपने बच्चे की आंखों में झांक कर देखें कि क्या उसका बचपन छीनने का हक आपको है।

4 comments:

Udan Tashtari said...

यूँ भी हर क्लास में पढ़ाई का बोझ जरुरत से ज्यादा बढ़ गया है. पूरी शिक्षा प्रणाली में ही बदलाव की जरुरत है. बचपन तो छीन ही रहे हैं..पूरा छात्र जीवन बोझ तले दब रहा है.

ghughutibasuti said...

बिल्कुल सही कहा आपने !
घुघूती बासूती

रंजू भाटिया said...

आगे बढ़ना बच्चो को आज के जमाने के साथ चलाना सिर्फ़ उतना ही होना चाहिए जितना आपका बच्चा सह सके
बचपन छीन रहा है बच्चो से उनको जब बोलते हुए देखती हूँ तो लगता है कि कहाँ है अब वो भोला बचपन जो दिल को अपनी अल्हड बातों से मोह लेता था ..

मीनाक्षी said...

बच्चों से जुड़ी बातें दिल को छू जाती हैं...काश माता-पिता इस बात को समझ पाएँ...