Wednesday, March 25, 2009

कट गए पर अब परवाज के

रह गए हम बिन आवाज के।
कट गए पर अब परवाज के।
मुख्तलिफ रास्तों ने बांटा हमे।
अपने ही नस्तर ने काटा हमे।
अब राग कोई भी बजता नहीं।
रह गए हम बिन साज के।

कट गए पर अब परवाज के।
रह गए हम बिन आवाज के।
रोज ही जीते रहे रोज मरते रहे।
ख्वाब खोकर हकीकत बुनते रहे।
जिसको देखा नहीं उसे ढूढते रहे।
रह गए यूहीं हम बिन आज के।

कट गए पर अब परवाज के।
रह गए हम बिन आवाज के।
क्यों प्यास सहरा कि बुझती नहीं।
क्यों शाम समंदर पर रुकती नहीं।
क्यों ढूढते रहते हैं हम सितारों में।
हकीकत हम अपने कल के राज के।

कट गए पर अब परवाज के।
रह गए हम बिन आवाज के।

3 comments:

संगीता पुरी said...

कट गए पर अब परवाज के।
रह गए हम बिन आवाज के।
बहुत बढिया ... अच्‍छा लिखते हें आप।

राज भाटिय़ा said...

कट गए पर अब परवाज के।
रह गए हम बिन आवाज के।
क्यों प्यास सहरा कि बुझती नहीं।
क्यों शाम समंदर पर रुकती नहीं।
क्यों ढूढते रहते हैं हम सितारों में।
हकीकत हम अपने कल के राज के।
बहुत ही सही लिखा आप ने धन्यवाद

mehek said...

waah bahut pasand aayi rachana badhai kat gaye par parvaz ke......waah