सूनी आंखों में ख्वाबों को सजाया जाए।
चलो दूर कहीं इक शहर बसाया जाए।।
कब तक सोएगा मुसाफिर उस फुटपाथ पर।
सर तक धूप चढ आई है उसे जगाया जाए।।
जब अपनों ने ही नहीं छोडा किसी काबिल तो।
किस हक से अब गैरों को बुलाया जाए।।
क्यूं कहूं दोस्त तुमको,क्यूं तुम्हें याद करूं।
किस काम कि दोस्ती,जिसमें हर गम सुनाया जाए।।
देखते देखते कितने दूर चले गए तुम तो।
तुम्ही बताओ ना तुम्हें कैसे बुलाया जाए।।
बहुत रात हो चुकी है सोचते सोचते।
चलो चादर से अब इन सितारों को हटाया जाए।।
Saturday, July 12, 2008
किस हक से अब गैरों को बुलाया जाए
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9 comments:
बहुत खूब अबरार भाई। बहुत खूब। हर एक शेर वजन लिए है। बधाई।
जब अपनों ने ही नहीं छोडा किसी काबिल तो।
किस हक से अब गैरों को बुलाया जाए।।
क्या बात हे हर शेर एक से बढ कर एक.
सूनी आंखों में ख्वाबों को सजाया जाए।
चलो दूर कहीं इक शहर बसाया जाए।।
--बहुत उम्दा.
सुंदर ग़जल कहते हो, अबरार भाई। उस्ताद को सलाम!
बहुत सुन्दर रचना...
***राजीव रंजन प्रसाद
अबरार भाई
इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए बधाई कुबूल करें. बहुत सारे जिंदगी के रंग समेटे हैं आपने इसमें.लिखते रहिये.
नीरज
lovley poem ...
aapse mil kar achha laga.
पहली बार पढ़ा। बहुत उम्दा लिखते हैं आप। बधाई
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