बच्चे नहीं खेलते अब गलियों में।
भौंरे नहीं आते अब कलियों में।
क्यों अब माएं नहीं सुनाती लोरी।
क्यों सपने सारे हो गए चोरी।।
हमने खो दी अपनी पहचान।
हां अब बदल गया इंसान।
हां अब बदल गया इंसान।।
कहां गए खेत खलिहान।
कहां गई अपनी दालान।
क्यों अब हम एक साथ नहीं खाते।
चंदा मामा अब क्यों नहीं आते।।
क्योंकि हमने खो दी अपनी पहचान।
हां अब बदल गया इंसान।
हां अब बदल गया इंसान।।
दूसरे का सुख अब नहीं देखा जाता।
सच बोलना अब हमें नहीं आता।
छोड दिया अब हाथ से खाना।
पांव छूने का गया जमाना।
अंगरेजी बनी हमारी शान।
क्योंकि हमने खो दी अपनी पहचान।
हां अब बदल गया इंसान।
हां अब बदल गया इंसान।।
Monday, June 16, 2008
हां अब बदल गया इंसान
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4 comments:
हां, सच में बदल गया इंसान। उसके झाड़ देने चाहिए कान। सच में बदल गया इंसान।
सच में आपने सही लिखा है बदल गया इंसान।
मुझे आपकी कविता अच्छी लगी।
sahi kaha waqt aur insaan dono badal gaye hai,bahut khub badhai
बहुत बढ़िया..हां अब बदल गया इंसान।।
अच्छी रचना.
Very nice.
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