मिलते थे जिनसे रोज वो जाने किधर गए।
तेरे शहर में तुझे ढूढते जमाने गुजर गए।।
टुकडों टुकडों की नींद से बटोरे थे कुछ सपने।
ऐसी हवा चली कि वो सारे बिखर गए।।
वक्त ने क्या सितम किया कैसे बताएं हम।
वो हर शहर उजड गया हम जिधर गए।।
न जाने क्या कशिश थी उसकी निगाह में।
जिन पर पडी नजर वो कातिल सुधर गए।।
मिलते थे जिनसे रोज वो जाने किधर गए।
तेरे शहर में तुझे ढूढते जमाने गुजर गए।।
Tuesday, June 17, 2008
तेरे शहर में तुझे ढूढते जमाने गुजर गए
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4 comments:
मिलते थे जिनसे रोज वो जाने किधर गए।
तेरे शहर में तुझे ढूढते जमाने गुजर गए।।
-बेहतरीन.
अच्छा है भाई. बधाई.
न जाने क्या कशिश थी उसकी निगाह में।
जिन पर पडी नजर वो कातिल सुधर गए।।
मिलते थे जिनसे रोज वो जाने किधर गए।
तेरे शहर में तुझे ढूढते जमाने गुजर गए।।
bahut hi badhiya,aafrin
न जाने क्या कशिश थी उसकी निगाह में।
जिन पर पडी नजर वो कातिल सुधर गए।।
वल्लाह क्या बात है...इस निगाह के सदके.
नीरज
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