चलो ना कहीं दूर चलें,इस भीडभाड से।
जहां भोर अजान और हनुमान चालीसा से हो।
जहां सुबह को मुर्गा बांक दे।
दोपहर उस बागीचे की छांव में गुजरे।
शाम हरे भरे खेतों की मेढों को नापे।
और रात इतनी लंबी हो कि हर थकान मिट जाए।।
चलो ना कहीं दूर चलें,इस भीडभाड से।
जहां कल को संवारने में आज न खराब हो।
जहां सुख दुख के साथी तमाम हों।
जहां दादी नानी का प्यार हो।
जहां रिश्तों की दरकार हो।
चलो ना कहीं दूर चलें,इस भीडभाड से।
चलो ना कहीं दूर चलें,इस भीडभाड से।।
Sunday, June 22, 2008
चलो ना कहीं दूर चलें
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4 comments:
बहुत सही....वाकई, कर बार मन करता है भीड़भाड़ से दूर निकल जायें.
चलो ना कहीं दूर चलें,इस भीडभाड से।
जहां कल को संवारने में आज न खराब हो।
--Jaane -anjaane har koi yahi to kar raha hai.
-achchee khwahish hai..
बहुत अच्छा लिखा है आपने, कमेंट करने की तो औकाद नहीं अभी मेरी। कुछ बिखरे हुए शब्द ही लिख देतां हूं अगर जुड़ जाए तो माला नहीं तो नहीं तो गुलाब के टूटे हुए पत्ते समझ कर अपने रास्ते से हटा देना...
खुद से दूर भागकर कहां जाओगे
हर जगह अपनी तनहाई को ही पाओगे
कभी तो मिलोगे उस खुशबू से
जिसकी याद में हर दिन बिताओगे
याद रखना सदा उस जमीं को
घर जिन हसीन वादियों में तुम बसाओगे...।
"जहां दादी नानी का प्यार हो।
जहां रिश्तों की दरकार हो।"
अफ़सोस है कि आज इसकी जरूरत कहीं नही है, अबरार भाई !
बहुत खूबसूरत लाइने हैं !
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